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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक २४ स्वभावान्तराभ्याम् तावपि स्वभावान्तराभ्यामिति । येनात्मना सामान्यस्याधिकरणं तेन सामान्यस्य विशेषस्य च, येन च, विशेषस्याधिकरणं तेन विशेषस्य सामान्यस्य चेति संकरदोषः । येन स्वभावेन सामान्यं तेन विशेषः, येन विशेषस्तेन सामान्यमिति व्यतिकरः । ततश्च वस्तुनोऽसाधारणाकारेण निश्चेतुमशक्तः संशयः। ततश्चाप्रतिपत्तिः। ततश्च प्रमाणविषयव्यवस्थाहानिरिति ॥
एते च दोषाः स्याद्वादस्य जात्यन्तरत्वादु निरवकाशा एव । अतः स्याद्वादसमवेदिमिरुद्धरणीयास्तत्तदुपपत्तिभिरिति स्वतन्त्रतया निरपेक्षयोरेव सामान्य विशेपयोर्विधिप्रतिषेधरूपयोस्तेषामवकाशात् । अथवा विरोधशब्दोऽत्र दोषवाची यथा विरुद्धमाचरतीति दुष्टमित्यर्थः । ततश्च विरोधेभ्यो विरोधवैयधिकरण्यादिदोषेभ्यो भोता इति व्याख्येयम् । एवं च सामान्यशब्देन सर्वा अपि दोषव्यक्तयः संगृहीता भवन्ति ॥ इति काव्यार्थः ।। २४ ॥
का अधिकरण हो जानेसे, तथा जिस रूपसे पदार्थ विशेष ( नास्तित्व ) का अधिकरण होता है, उसी रूपसे विशेष ( नास्तित्व ) और सामान्य ( अस्तित्व ) का अधिकरण हो जानेसे संकर दोप आता है। अर्थात् जिस रूपसे ( स्वरूप चतुष्टयसे ) पदार्थमें अस्तित्व धर्मका सद्भाव होता है, उसी रूपसे ( स्वरूप चतुष्टयसे ) उसी पदार्थमें नास्तित्व धर्मका सद्भाव होनेका प्रसंग आ जानेके कारण, तथा जिस रूपसे (पररूप चतुष्टयसे) पदार्थमें नास्तित्व धर्मका सद्भाव होता है, उसी रूपसे (पररूप चतुष्टयसे ) उसी पदार्थमें अस्तित्व धर्मका सद्भाव होनेका प्रसंग उपस्थित हो जाता है। (५) जिस स्वरूपसे पदार्थमें सामान्य-अस्तित्व-का सद्भाव होता है, उसी स्वरूपसे, उसी पदार्थमें विशेष-नास्तित्व-का सद्भाव होनेसे, तथा जिस स्वरूपसे पदार्थमें विशेष-नास्तित्व-का सद्भाव होता है, उसी स्वरूपसे, उसी पदार्थमें सामान्य-अस्तित्व-का सद्भाव होनेसे व्यतिकर नामक दोष आता है। (६) व्यतिकर दोप मा जानेसे वस्तुका सत्त्वरूप या असत्त्वरूप असाधारण धर्मके द्वारा निश्चय करनेकी शक्तिका अभाव होनेके कारण संशय नामक दोप उपस्थित होता है। (७) संशय होनेसे वस्तुका ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो सकता, अतएव स्याद्वादमें अप्रतिपत्ति दोप आता है। (८) तथा, वस्तुका यथार्थ ज्ञान न होनेसे वस्तुकी व्यवस्था नहीं बनती, अतएव स्याद्वादमें विषयव्यवस्थाहानि (अभाव ) दोष आता है।
(उक्त आठ दोषोंका परिहार-(१) किसी न किसी प्रकारसे प्रतीतिका-ज्ञानका-विपय बननेवाले पदार्थ में स्वरूपको अपेक्षासे विपरीत भासमान विवक्षित सत्त्वधर्ममें, और पररूपको अपेक्षासे भासमान विवक्षित असत्त्वधर्ममें विरोध नहीं होता। दो धर्मोंमेंसे एक धर्मका एक पदार्थमें सद्भाव होनेपर जब दूसरे धर्मकी उपलब्धि नहीं होती, तब अनुपलब्धिसे उपलभ्यमान धर्म और अनुपलभ्यमान धर्ममें विरोधकी सिद्धि होती है। स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावके रूपसे पदार्थका जव अस्तित्व होता है, तब परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावके रूपसे ( अर्थात् जिस पदार्थ में स्वरूपादिचतुष्टयसे अस्तित्व धर्मका सद्भाव होता है, उसी पदार्थमें पररूपचतुष्टयका अभाव होनेसे ) उसी पदार्थके नास्तित्व धर्मका उपलम्भ (प्राप्ति ) नहीं होता, ऐसी बात नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार स्वरूपादिसे अस्तित्व धर्मका सद्भाव अनुभवसे सिद्ध है, उसी प्रकार पररूपादिसे नास्तित्व धर्मका सद्भाव भी अनुभवसे सिद्ध है। वस्तुका सर्वथा अर्थात् स्वरूप और पररूपसे अस्तित्व ही वस्तुका स्वरूप नहीं है; क्योंकि जिस प्रकार स्वरूपसे अस्तित्व वस्तुका स्वरूप होता है, उसी प्रकार पररूपसे भी अस्तित्व वस्तुका धर्म वन जायगा। वस्तुका सर्वथा अर्थात् स्वरूप और पररूपसे नास्तित्व भी वस्तुका स्वरूप नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार पररूपसे नास्तित्व वस्तुका स्वरूप होता है, उसी प्रकार स्वरूपसे भी नास्तित्व वस्तुका धर्म बन जायगा । १. येन रूपेण सत्त्वं तेन रूपेणासत्त्वस्यापि प्रसंगः । येन रूपेण चासत्त्वं तेन रूपेण सत्त्वस्यापि प्रसंग इति
संकरः । “सर्वेषां युगपत्प्राप्तिस्संकरः" इत्यभिधानात् । २. येन रूपेण सत्त्वं तेनरूपेणासत्त्वमेव स्यान्न तु सत्त्वं । येन रूपेण चासत्त्वं तेन सत्त्वमेव स्यान्नत्वसत्त्वम्
इति व्यतिकरः । "परस्परविपयगमनं व्यतिकरः" इति वचनात् । सप्तभंगीतरगिण्यां पृ. ८२ ।