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अन्य. यो. व्य. श्लोक २३ ] स्याद्वादमञ्जरी
२११ प्रतिनियतस्वरूपानुपपत्तिः स्यात् । तत्प्रतिपत्तये स्याद् इति शब्दः प्रयुज्यते । स्यात् कथचिद् स्वद्रव्यादिभिरपीत्यर्थः । यत्रापि चासौ न प्रयुज्यते तत्रापि व्यवच्छेदफलैवकारबद् बुद्धिमद्भिः प्रतीयत एव । यदुक्तम्
"सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञैः सर्वत्रार्थात्प्रतीयते ।
यथैवकारोऽयोगादिव्यवच्छेदप्रयोजनः"१॥ इति प्रथमो भङ्गः। __स्यात्कथंचिद् नास्त्येव कुम्भादिः स्वद्रव्यादिभिरिव परद्रव्यादिभिरपि वस्तुनोऽसत्त्वानिष्टौ हि प्रतिनियतस्वरूपाभावाद् वस्तुप्रतिनियतिर्न स्यात् । न चास्तित्वैकान्तवादिभिरत्र नास्तित्वमसिद्धमिति वक्तव्यम, कथंचित् तस्य वस्तुनि युक्तिसिद्धत्वात् , साधनवत । न हि कचिद् अनित्यत्वादौ साध्ये सत्त्वादिसाधनस्यास्तित्वं विपक्षे नास्तित्वमन्तरेणोपपन्नम् , तस्य साधनत्वाभावप्रसङ्गात् । तस्माद् वस्तुनोऽस्तित्वं नास्तित्वेनाविनाभूतम् , नास्तित्वं च तेनेति । यह कहनेसे प्रयोजन सिद्ध हो जाता है, फिर 'स्यात्' शब्दकी कोई आवश्यकता नहीं है। समाधान-'घट अस्तित्व रूप ही है' यह कहनेसे घटके सर्वथा अस्तित्वका ज्ञान होता है। किन्तु 'स्यात्' शब्दके लगानेसे मालूम होता है कि घट पररूप स्तम्भ आदिकी अपेक्षासे सर्वथा अस्तित्व रूप न होकर केवल अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा विद्यमान है; पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा वह सदा नास्ति रूप ही है । अतएव प्रत्येक वस्तु स्व चतुष्टयकी अपेक्षा ही कथंचित् अस्ति रूप है, पर चतुष्टयकी अपेक्षा नहीं, इसी भावको स्पष्ट करनेके लिए 'स्यात्' ( कथंचित् ) शब्दका प्रयोग किया गया है। प्रत्येक वाक्यमें 'स्यात्' अथवा 'कथंचित् शब्दके न रहनेपर भी बुद्धिमान लोग उसका अभिप्राय जान लेते हैं । कहा भी है
"जिस प्रकार अयोगव्यवच्छेदक 'एव' शब्दके प्रयोग किये विना बुद्धिमान प्रकरणसे अर्थ समझ लेते हैं, उसी तरह 'स्यात्' शब्दके प्रयोगके विना भी बुद्धिमान अभिप्राय जान लेते हैं।"
यह प्रथम भंग है।
(२) घट आदि प्रत्येक वस्तु कथंचित् नास्ति रूप ही है। यदि पदार्थको स्व चतुष्टयकी तरह पर चतुष्टयसे भी अस्ति रूप माना जाय, तो पदार्थका कोई भी निश्चित स्वरूप सिद्ध नहीं हो सकता, अतएव एक वस्तुके दूसरे रूप हो जानेसे, वस्तुका कोई निश्चित स्वरूप नहीं कहा जा सकेगा। वस्तु अस्तिरूप होती है, नास्तिरूप कदापि नहीं-यह ऐकान्तिक कथन करनेवालोंके मतमें वस्तुके नास्तित्व धर्मकी सिद्धि नहीं हो सकती । क्योंकि जिस प्रकार साधन (हेतु) के पक्ष और सपक्षमें अस्तिरूप और विपक्षमें नास्तिरूप होनेसे, उसमें अस्तित्व और नास्तित्व धर्मोका (युगपद् ) सद्भाव होता है, उसी प्रकार वस्तुमें कथंचित् नास्तित्व युक्तिसे सिद्ध होता है । क्वचित् ( शब्द आदिमें ) अनित्यत्व आदिको सिद्ध करनेके लिये सत्त्व आदि साधनके पक्ष और सपक्षमें अस्तित्व और विपक्षमें नास्तित्व सिद्ध किये बिना (जहाँ अनित्य नहीं वहाँ सत्त्व नहीं) सिद्धि नहीं कीजा सकती । क्योंकि सत्त्व आदि साधनका विपक्षमें नास्तित्व न हो तो उसके साधनत्वके अभाव होनेका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। अतएव वस्तुका अस्तिधर्म उसके नास्तित्व धर्मके साथ अविनाभावसे सम्बद्ध है-पर चतुष्टयरूपकी अपेक्षासे वस्तुके नास्तिरूप न होनेपर स्व चतुष्टयकी अपेक्षा उसके अस्तित्व धर्मकी सिद्धि नहीं हो सकती। जिस प्रकार वस्तुका अस्तित्व धर्म नास्तित्व धर्मके साथ अविनाभूत है, उसी प्रकार उसका नास्तित्व धर्म अस्तित्व धर्मके साथ अविनाभूत है। अस्तित्वधर्म और नास्तित्व धर्मका प्रधानोपसर्जन भाव विवक्षाके कारण होता है । ( जब अस्तित्व धर्मको ही कहनेकी वक्ता की इच्छा होती है तब अस्तित्त्व धर्मकी प्रधानता और नास्तित्व धर्मकी गौणता, तथा जब नास्तित्व धर्मको ही कहनेकी इच्छा होती है तब
१. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके १-६-५६ ।