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________________ २१० श्रीमद्राजचन्द्रजनशास्त्रमालाया [अन्य. यो. व्य. श्लोक २३ २ स्यान्नास्त्येव सर्वमिति निषेधकल्पनया द्वितीयः। ३ स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येवेति क्रमतो विधिनिपेधकल्पनया तृतीयः। ४ स्यादवक्तव्यमेवेति युगपद्विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः। ५ स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति विधिकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च पञ्चमः। ६ स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति निषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च षष्ठः । ७ स्यादस्त्येव स्थान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च सप्तमः॥ तत्र स्यात्कथंचित् स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेणास्त्येव सर्वं कुम्भादि, न पुनः परद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेण । तथाहि-कुम्भो द्रव्यतः पार्थित्वेनास्ति, नाप्यादिरूपत्वेन । क्षेत्रतः पाटलिपुत्रकत्वेन, न कान्यकुब्जादित्वेन । कालतः शैशिरत्वेन । न वासन्तिकादित्वेन । भावतः श्यामत्वेन, न रक्तादित्वेन । अन्यथेतररूपापत्त्या स्वरूपहानिप्रसङ्ग इति । अवधारणं चात्र भङ्गेऽनभिमतार्थव्यावृर्थमुपात्तम् इतरथानभिहिततुल्यतैवास्य वाक्यस्य प्रसज्येत, प्रतिनियतस्वार्थानभिधानात् । तदुक्तम् "वाक्येऽवधारणं तावदनिष्टार्थनिवृत्तये । कर्तव्यमन्यथानुक्तसमत्वात् तस्य कुत्रचित्"" ॥ तथाप्यस्त्येव कुम्भ इत्येतावन्मात्रोपादाने कुम्भस्य स्तम्भाद्यस्तित्वेनापि सर्वप्रकारेणास्तित्वप्राप्तेः है ( स्यादस्ति); २ प्रत्येक वस्तु निषेध धर्मसे कथंचित् नास्तित्व रूप ही है ( स्यान्नास्ति); ३ प्रत्येक वस्तु क्रमसे विधि, निषेध दोनों धर्मोसे कथंचित् अस्तित्व और नास्तित्व दोनों रूप ही है ( स्यादस्तिनास्ति); ४ प्रत्येक वस्तु एक साथ विधि, निषेध धर्मोसे कथंचित् अवक्तव्य ही है ( स्यादवक्तव्य); ५ प्रत्येक वस्तु विधि तथा एक साथ विधि-निषेध धर्मोसे कथंचित् नास्तित्व और अवक्तव्य रूप ही है ( स्यादस्ति अवक्तव्य ); ६ प्रत्येक वस्तु निषेध तथा एक साथ विधि-निषेध धर्मोसे कथंचित् नास्तित्व और अवक्तव्य रूप ही है ( स्यान्नास्ति अवक्तव्य ); ७ प्रत्येक वस्तु क्रमसे विधि, निषेध तथा एक साथ विधि-निषेध धर्मोसे कथंचित् अस्तित्व, नास्तित्व और अवक्तव्य रूप ही है (स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्य )। (१) प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा कथं चित् अस्तित्व रूप ही है, और दूसरे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा कथंचित नास्तित्व रूप ही है। जैसे, घड़ा द्रव्यकी अपेक्षा पार्थिव रूपसे विद्यमान है, जल रूपसे नहीं; क्षेत्र ( स्थान ) की अपेक्षा पटना नगरकी अपेक्षा मौजूद है, कन्नौज आदिकी अपेक्षासे नहीं; काल (समय) की अपेक्षा शीत ऋतुको दृष्टिसे है, वसन्त ऋतु आदिकी दृष्टिसे नहीं; तथा भाव (स्वभाव ) की अपेक्षा काले रूपसे मौजूद हैं, लाल आदि रूपसे नहीं। यदि पदार्थोंका अस्तित्व स्व चतुष्टय ( द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ) की अपेक्षाके विना ही स्वीकार किया जाय, तो पदार्थोंका स्वरूप सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि जब तक वस्तुके एक स्वरूपकी दूसरे स्वरूपसे व्यावृत्ति न की जाय, तब तक वस्तुका स्वरूप नहीं बन सकता। इसीलिए यहाँ अनिष्ट पदार्थोंका निराकरण करनेके लिए 'एव' (अवधारण ) का प्रयोग किया है। यदि 'एव' का प्रयोग न किया जाय, तो अनिच्छित वस्तुका प्रसंग मानना पड़े । कहा भी है "वाक्यमें अवधारणार्थक 'एव' का प्रयोग अनिष्ट अर्थ निराकरण करनेके लिए करना चाहिए, क्योंकि अवधारणार्थक शब्दके प्रयोगके अभावमें वह उक्त वाक्य अनुक्त वाक्यके समान बन जाता है।" शंका-वाक्यमें अवधारणार्थक प्रयोग करने पर भी 'घट अस्तित्व रूप ही है' ( अस्त्येव कुम्भः ). १. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके १-६-५३ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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