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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १८ अविमर्शात्मकेन वलेन वर्तते साहसिकः। भाविनमर्थमविभाव्य यः प्रवर्तते स एवमुच्यते । महांश्चासौ साहसिकश्च महासाहसिकोऽत्यन्तमविमृश्य प्रवृत्तिकारी । इति मुकुलितार्थः॥
विवृतार्थस्त्वयम् । बौद्धा बुद्धिक्षणपरम्परामात्रमेवात्मानमामनन्ति न पुनर्मौक्तिककणनिकरानुस्यूतैकसूत्रवत् तदन्वयिनमेकम् । तन्मते येन ज्ञानक्षणेन सदनुष्ठानमसदनुष्टानं वा कृतम् तस्य निरन्वयविनाशान्न तत्फलोपभोगः। यस्य च फलोपभोगः, तेन तत् कर्म न कृतम् । इति प्राच्यज्ञानक्षणस्य चाकृतकर्मभोगः, स्वयमकृतस्य परकृतस्य कर्मणः फलोपभोगादिति । अत्र.च कर्मशब्दः उभयत्रापि योज्यः, तेन कृतप्रणाश इत्यस्य कृतकर्मप्रणाश इत्यर्थो दृश्यः। बन्धानुलोम्याच्चेत्थमुपन्यासः॥
___ यथा भवभङ्गदोषः। भव आजवीभावलक्षणः संसारः, तस्य भङ्गो विलोपः। स एव दोषः क्षणिकवादे प्रसज्यते। परलोकाभावप्रसङ्ग इत्यर्थः। परलोकिनः कस्यचिदभावात् । परलोको हि पूर्वजन्मकृतकर्माणुसारेण भवति । तच्च प्राचीनज्ञानक्षणानां निरन्वयं नाशात् केन नामोपभुज्यतां जन्मान्तरे॥
यच्च मोक्षाकरगुप्तेन “यञ्चित्तं तच्चित्तान्तरं प्रतिसन्धत्ते यथेदानीन्तनं चित्तं, चित्तं च
(५) स्मृतिका अभाव, इन दोषोंकी उपेक्षा करते हुए क्षणवादके सिद्धान्तको प्रतिपादन करनेका महान् साहस करते हैं।
(१) बौद्ध लोग विचारके क्षणोंकी परम्पराको आत्मा मानते हैं। जिस प्रकार एक सूतका डोरा वहुतसे मोतियोंमें प्रविष्ट होकर सब मोतियोंकी एक माला बनाता है, उस तरह बौद्धोंके मतमें विचारके सम्पूर्ण क्षणोंमें अन्वित होनेवाली किसी एक वस्तुको आत्मा स्वीकार नहीं किया गया है। अतएव बौद्ध मतमें जिस विचारके क्षणसे अच्छे या बुरे कर्म किये जाते हैं, उस विचार क्षणके सर्वथा नष्ट हो जानेसे अच्छे या बुरे कर्म करनेवाले मनुष्यको उन अच्छे, बुरे कर्मोंका फल न मिलना चाहिये। क्योंकि फल भोगनेवाले मनुष्यने उन कर्मोंको किया ही नहीं है। कारण कि जिस पूर्व विचारके क्षणसे कर्म किया गया था, वह क्षण सर्वथा नष्ट हो चुका है। अतएव मनुष्यको अपने कर्मोके फलका उपभोग नहीं करना चाहिये। (२) तथा क्षणिकवादमें जिस विचारक्षणने कर्मोंको नहीं किया, उस विचारक्षणको कर्मोके फलको भोगनेके लिये बाध्य होनेके कारण, स्वयं नहीं किये हुए दूसरोंके कर्मोंको भोगनेसे अकृत कर्मभोग नामका दोष आता है। यहाँ जिस प्रकार श्लोकको प्रथम पंक्तिमें 'अकृतकर्मभोग' में कर्म शब्दका संबंध है, उसी तरह 'कृतप्रणाश' में भी कर्म शब्द जोड़कर 'कृतकर्मप्रणाश' अर्थ करना चाहिये।
(३) क्षणिकवादमें परलोक का अभाव होनेका प्रसंग उपस्थित होता है, क्योंकि परलोकको प्राप्त होनेवालेका अभाव है। पूर्वजन्ममें किये गये कर्मके अनुसार ही परलोककी प्राप्ति होती है । तथा क्षणिकवादियोंके मतमें पूर्वजन्ममें किये गये कर्मका, प्राचीन ज्ञानक्षणोंका निरन्वय नाश हो जानेसे, अन्य जन्ममें किसके द्वारा उपभोग किया जायेगा? अतएव बौद्ध मतमें परलोकी (आत्मा) के अभाव होनेसे परलोककी भी सिद्धि नहीं होती।
मोक्षाकरगुप्त (बौद्ध)-“वर्तमानकालीन चित्तक्षणके समान जो चित्तक्षण होता है वह अन्य
१. संतानस्यैकमाश्रित्य कर्ता भोक्तेति देशितं । यथैव कदलीस्तंभो न कश्चिद्भागशः कृतः। तथाहमप्यसद्भूतो मृग्यमाणो विचारतः ॥
बोधिचर्यावतारे ९-७३, ७५ । २. काचिन्नियतमर्यादाऽवस्थैव परिकीर्त्यते।
तस्याश्चानाद्यनन्तायाः परः पूर्व इहेति च ॥ तत्त्वसंग्रहे १८७३ ।