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अन्य.यो. व्य. श्लोक १८] स्याद्वादमञ्जरी
१७९ ___ अधुना क्षणिकवादिन ऐहिकामुष्मिकव्यवहारानुपपन्नार्थसमर्थनमविमृश्यकारितं दर्शयन्नाह
कृतप्रणाशाकृतकर्मभोगभवप्रमोक्षस्मृतिभङ्गदोषान् ।
उपेक्ष्य साक्षात् क्षणभङ्गमिच्छन्नहो महासाहसिकः परस्ते ॥ १८ ॥ कृतप्रणाशदोषम् अकृतकर्मभोगदोषम् भवभङ्गदोषम् प्रमोक्षभङ्गदोषम् स्मृतिभङ्गदोषमित्येतान् दोषान् । साक्षादित्यनुभवसिद्धान् । उपेक्ष्यानादृत्य । साक्षात् कुर्वन्नपि गजनिमीलिकामवलम्बमानः । सर्वभावानां क्षणभङ्गम् उदयानन्तरविनाशरूपां क्षणक्षयिताम् । इच्छन् प्रतिपद्यमानः। ते तव । परः प्रतिपक्षी वैनाशिकः सौगत इत्यर्थः । अहो महासाहसिकः सहसा
होनेपर प्रमाण भी नहीं बन सकता । (घ) प्रमाणके अभावमें प्रमिति भी नहीं सिद्ध हो सकती। अतएव सर्वथा शून्य मानना ही वास्तविक तत्त्व है। क्योंकि अनुमान और अनुमेयका व्यवहार बुद्धिजन्य है। वास्तव में बुद्धिके बाहर सत् और असत् कोई वस्तु नहीं। अतएव न सत्, न असत्, न सत्-असत्, और न सत्-असत् का अभाव रूप ही वास्तवमें परमार्थ है।
जैन-प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण और प्रमिति प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणोंसे सिद्ध होते हैं। (क) 'मैं सुखी हैं, मैं दुखी हैं आदि 'अहं प्रत्यय'से प्रमाता सिद्ध होता है। (ख) बाह्य पदार्थोंका ज्ञान अनुभवसे सिद्ध है। तथा बाह्य पदार्थों के अनुभव होनेपर ही वासना बन सकती है । अतएव प्रमेय भी स्वीकार करना चाहिये । (ग) प्रमेयके सिद्ध होनेपर प्रमाण भी अवश्य मानना चाहिये । जैसे कुठारसे काटनेकी क्रिया हो सकती है, वैसे जानने रूप क्रियाका भी कोई करण होना चाहिये। (घ) पदार्थको जानते समय पदार्थ, संबंधी अज्ञानका नाश होना ही प्रमाणका साक्षात् फल है, अतएव प्रमिति भी मानना चाहिये । तथा शून्यवादी लोग प्रमाता आदिको प्रमाण अथवा अप्रमाण किसीसे भी सिद्ध नहीं कर सकते । अप्रमाण अकिचित्कर है, इसलिये अप्रमाणसे प्रमाता आदि सिद्ध नहीं हो सकते । इसी तरह प्रमाणसे भी प्रमाता आदि सिद्ध नहीं होते, क्योंकि शून्यवादियोंके मतमें स्वयं प्रमाण ही अवस्तु है। तथा, जिस प्रमाणसे शून्यवादी लोग अपने पक्षकी सिद्धि करते हैं, वह प्रमाण विना प्रमेयके नहीं बन सकता, क्योंकि प्रमाण निविषय नहीं होता, अतएव शून्यवादियोंको मौन रहना हो श्रेयस्कर है।
क्षणिकवादियोंके मतमें इस लोक और परलोकको व्यवस्था नहीं बन सकती । अतएव उनके मतको अविचारपूर्ण सिद्ध करते हैं
श्लोकार्थ-आपके प्रतिपक्षी क्षणिकवादी बौद्ध क्षणिकवादको स्वीकार करके, किये हुए कर्मोक फलको न भोगना, अकृत कर्मोके फलको भोगनेके लिये बाध्य होना, परलोकका नाश, मुक्तिका नाश, तथा स्मरण शक्तिका अभाव, इन दोषोंकी उपेक्षा करके अपने सिद्धांतको स्थापित करनेका महान् साहस करते हैं।
व्याख्यार्थ-जिस प्रकार हाथी आँखोंको बन्द करके जलपान करता है, वैसे ही संसार, मोक्ष आदिका साक्षात् अनुभव करते हुए भी सम्पूर्ण पदार्थोंको क्षणस्थायी माननेवाले प्रतिपक्षी बौद्ध (१) किये हुए कर्मोंका नाश, (२) नहीं किये हुए कर्मोंका भोग, (३) संसारका क्षय, (४) मोक्षका नाश और
१. गजो नेत्रे निमील्य जलपानादि करोति नेत्रनिमीलनेन न किंचित्करोमीति भावयति च तद्वदयं
वादी कृतप्रणाशादीन् दोषान् साक्षादनुभवन् सर्वभावानां क्षणभङ्गुरता प्रतिपद्यते ।