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श्रीमद्राजचन्द्रजेनशास्त्रमालायां [ अन्य. यो. व्य. श्लोक १६
न च प्रकाश्यादात्मलाभ एव प्रकाशकस्य प्रकाशकत्वं, प्रदीपादेर्घटादिभ्योऽनुत्पन्नस्यापि तत्प्रकाशकत्वात् । जनकस्यैव च ग्राह्यत्वाभ्युपगमे स्मृत्यादेः प्रमाणस्याप्रामाण्यप्रसङ्गः तस्यार्थाजन्यत्वात् । न च स्मृतिर्न प्रमाणम्, अनुमानप्रमाणप्राणभूतत्वात् साध्यसाधनसम्बन्धस्मरणपूर्वकत्वात् तस्य । जनक्रमेव च चेद् ग्राह्यम्, तदा स्वसंवेदनस्य कथं ग्राहकत्वम् । तस्य हि ग्राह्यं स्वरूपमेव । न च तेन तज्जन्यते, स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । तस्मात् स्वसामग्रीप्रभवचोर्घटप्रदीपयोरिवार्थज्ञानयोः प्रकाश्यप्रकाशकभावसंभवाद् न ज्ञाननिमित्तत्वमर्थस्य ॥
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नन्चर्थाजन्यत्वे ज्ञानस्य कथं प्रतिनियतकर्मव्यवस्था । तदुत्पत्तितदाकारताभ्यां हि सोपपद्यते । तस्मादनुत्पन्नस्यातदाकारस्य च ज्ञानस्य सर्वार्थान् प्रत्यविशेपात् सर्वग्रहणं प्रसज्येत। नैवम् । तदुत्पत्तिमन्तरेणाप्यावरणक्षयोपशमलक्षणया योग्यतयैव प्रतिनियतार्थ - प्रकाशकत्वोपपत्तेः । तदुत्पत्तावपि च योग्यतावश्यमेष्टव्या । अन्यथाऽशेपार्थ सान्निध्ये तत्तदर्थासांनिध्येऽपि कुतश्चिदेवार्थात् कस्यचिदेव ज्ञानस्य जन्मेति कौतस्कुतोऽयं विभागः ॥
तदाकारता त्वर्थाकारसंक्रान्त्या तावदनुपपन्ना, अर्थस्य निराकारत्वप्रसङ्गात् ज्ञानस्य
शंका - प्रकाश्य पदार्थ से उत्पन्न होकर पदार्थोंको प्रकाशित करना ही प्रकाशक ( ज्ञान ) का प्रकाशकपना है । समाधान - यह ठीक नहीं। क्योंकि घट आदिसे उत्पन्न न होनेवाले भी दीपक आदि घटको प्रकाशित करते हैं । अतएव प्रकाश्य ( अर्थ ) और प्रकाशक (ज्ञान) में कार्य-कारण सम्वन्व नहीं हो सकता । तथा, यदि ज्ञानको पदार्थसे उत्पन्न हुआ मान कर ज्ञानको उसी पदार्थका जाननेवाला स्वीकार किया जाय, तो स्मृति आदिको अप्रमाणत्वका प्रसंग उपस्थित हो जाता है; क्योंकि स्मृति आदि प्रमाण किसी पदार्थसे उत्पन्न नहीं होते । तथा, स्मृति प्रमाण नहीं, ऐसी बात नहीं; क्योंकि स्मृति प्रमाण, साध्य-साधनके अविनाभाव रूप सम्बन्ध ( व्याप्ति ) के स्मरणपूर्वक होनेवाले अनुमान प्रमाणका प्राणभूत है । तथा, जो पदार्थ ज्ञानको उत्पन्न करनेवाला है, वही ज्ञानका विषय होता हो तो स्वसंवेदन ज्ञानके ग्राहकत्व की सिद्धि कैसे होगी ? स्वसंवेदन ज्ञानका जानने योग्य विषय उसका अपना स्वरूप ही होता है । स्वसंवेदनसे स्वसंवेदन ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि स्वसंवेदन ज्ञानमें अपनी उत्पत्ति क्रिया होने में विरोव आता है । अतएव जैसे अपनी-अपनी उपादान और सहाकारीभूत सामग्री से उत्पन्न होनेवाले घट और प्रदीपमें प्रकाश्य-प्रकाशक भाव होता है, वैसे ही अपनी-अपनी उपादान और सहकारी भूत सामग्रीसे उत्पन्न होनेवाले अर्थ और ज्ञानमें प्रकाश्य-प्रकाशकभाव संभव होनेसे अर्थका ज्ञान निमित्तत्त्व अर्थात् अर्थके ज्ञान की उत्पत्तिमें कारण होना संभव नहीं ।
वौद्ध - यदि ज्ञानकी उत्पत्ति पदार्थसे उत्पन्न नहीं होती, तो विवक्षित ज्ञेय पदार्थका निश्चित ज्ञान कैसे होगा ? यह व्यवस्था ज्ञानको उस पदार्थसे उत्पन्न होनेवाला, और उस पदार्थके आकाररूप होकर उसे पदार्थको जाननेवाला माननेसे ही बन सकती है । अन्यथा पदार्थसे उत्पन्न न होनेवाले और ज्ञेयाकार रूप न होनेवाले ज्ञानकी सभी पदार्थोंके विपयमें समानरूपता होनेसे एक पदार्थको जानते समय ज्ञानको प्रत्येक पदार्थको जानना पड़ जायेगा । जैन - यह ठीक नहीं। क्योंकि ज्ञानकी उत्पत्ति ज्ञेय पदार्थसे न होने पर भी ज्ञेय पदार्थके ज्ञानको आवृत करनेवाले कर्मके क्षयोपशमसे अभिव्यक्त विशिष्ट क्षायोपशमिक ज्ञानसे ही प्रतिनियत अर्थके विषयमें आत्माका प्रकाशकत्व घटित होता है । ज्ञेय पदार्थसे ज्ञानकी उत्पत्ति होनेमें भी ज्ञानको क्षयोपशम रूप योग्यताको अवश्य स्वीकार करना होगा । यदि इस योग्यताको स्वीकार न किया जाये तो अनेक पदार्थोंका सांनिध्य होनेपर उस-उस अर्थका सांनिध्य न होनेपर भी, किसी भी अर्थसे किसी भी ज्ञानकी उत्पत्ति हो जाया करेगी, और फिर यह ज्ञान इसी पदार्थका है, यह विभाग नहीं वन सकेगा ।
ज्ञानको पदार्थके आकारका मानना भी संगत नहीं है, अन्यथा पदार्थको ज्ञानके आकारका होनेसे