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अन्य. यो. व्य. श्लोक १६] स्याद्वादमञ्जरी
१५३ फलस्य ज्ञानलक्षणकार्यस्य भाव आत्मलाभः स्यात् । जनकस्यार्थक्षणस्यातीतत्वाद् निर्मलमेव ज्ञानोत्थानं स्यात् ।
जनकस्यैव च ग्राह्यत्वे इन्द्रियाणामपि ग्राह्यत्वापत्तिः, तेषामपि ज्ञानजनकत्वात् । न चान्वयव्यतिरेकाभ्यामर्थस्य ज्ञानहेतुत्वं दृष्ट, मृगतृष्णादौ जलाभावेऽपि जलज्ञानोत्पादात्, अन्यथा तत्प्रवृत्तेरसंभवात् । भ्रान्तं तज्ज्ञानमिति चेत् , ननु भ्रान्ताभ्रान्तविचारः स्थिरीभूय क्रियतां त्वया। सांप्रतं प्रतिपद्यस्व तावदनर्थजमपि ज्ञानम् । अन्वयेनार्थस्य ज्ञानहेतुत्वं दृष्टमेवेति चेत् । न । न हि तद्भावे भावलक्षणोऽन्वय एव हेतुफलभावनिश्चयनिमित्तम् अपि तु तदभावेऽभावलक्षणो व्यतिरेकोऽपि । स चोक्तयुक्तया नास्त्येव । योगिनां चातीतानागतार्थग्रहणे किमर्थस्य निमित्तत्वम् , तयोरसत्त्वात् ।
"ण णिहाणगया भग्गा पुंजो णत्थि अणागए।
णिव्वुया णेव चिठ्ठति आरग्गे सरिसवोवमा ।।१ इति वचनात् । निमित्तत्त्वे चार्थक्रियाकारित्वेन सत्त्वादतीतानागतत्वक्षतिः।। सकती' (हेतौ विलीने न फलस्य भावः )। क्योंकि ज्ञानको उत्पन्न करनेवाले पदार्थके नष्ट होनेपर ज्ञान निर्विषय रह जाता है।
तथा, ज्ञानको उत्पत्तिमें कारण भूत पदार्थको ज्ञानका विषय माननेसे इन्द्रियोंको भी ज्ञानका विषय स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि इन्द्रियाँ भी ज्ञानको उत्पन्न करती हैं। परन्तु आप लोगोंने पदार्थकी तरह इन्द्रियोंको ज्ञानका विषय नहीं माना है। शंका-पदार्थ ज्ञानका विषय ( कारण ) है, क्योंकि पदार्थका ज्ञानके साथ अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध है। जैसे अग्नि धूमका कारण है, क्योंकि 'जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँवहाँ अग्नि होती है, और 'जहां अग्नि नहीं होती, वहाँ धूम नहीं होता,' वैसे ही 'जहाँ ज्ञान होता है, वहाँ पदार्थ होता है, और 'जहाँ पदार्थ नहीं होता, वहाँ ज्ञान भी नहीं होता' इसलिये ज्ञान और पदार्थमें अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध होनेसे पदार्थ ज्ञानका कारण है । समाधान-यह ठीक नहीं। क्योंकि जिस प्रकार धूमका होना अग्निके ऊपर अवलम्बित है, उस प्रकार ज्ञानका होना पदार्थके ऊपर अवलम्बित नहीं। कारण कि मृगतृष्णामें जल ( अर्थ )के अभाव होनेपर भी जलको पानेके लिये मनुष्यकी प्रवृत्ति देखी जाती है । शंकामृगतृष्णामें जलका ज्ञान होना भ्रमपूर्ण है, अतएव यहाँ पदार्थके बिना भी ज्ञान हो जाता है। समाधानयहाँ ज्ञानके भ्रमरूप या अभ्रमरूप होनेका प्रश्न नहीं है, प्रश्न है कि ज्ञान पदार्थके बिना भी उत्पन्न होता है। यदि कहो कि जहाँ ज्ञान होता है, वहीं पदार्थ होता है, इसलिये पदार्थ ज्ञानका कारण है, तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि जब तक पदार्थों में अन्वय और व्यतिरेक दोनों सम्वन्ध न रहें, तब तक उनमें कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं बन सकता। अतएव जब तक पदार्थ और ज्ञानमें 'जहां पदार्थ न हो, वहाँ ज्ञान भी न हो' इस प्रकारका व्यतिरेक सम्बन्ध न बने, तब तक पदार्थको ज्ञानका हेतु नहीं कह सकते । यह व्यतिरेक सम्बन्ध पदार्थ और ज्ञानमें नहीं है, क्योंकि मृगतृष्णामें जलका अभाव होनेपर भी जलका ज्ञान होता है। तथा, अतीत और अनागत पदार्थों को जाननेवाले योगियोंके ज्ञानमें पदार्थ कारण नहीं हो सकता। क्योंकि अतीत और अनागत पदार्थोंको जानते समय अतीत और अनागत पदार्थोंका अभाव रहता है । अतएव भूत, भविष्यत् पदार्थ ज्ञानमें कारण नहीं हो सकते। कहा भी है
"जो पदार्थ नष्ट हो गये हैं, वे किसी खजानेमें जमा नहीं हैं, तथा जो पदार्थ आनेवाले है, उनका कहीं ढेर नहीं लगा है। जो पदार्थ उत्पन्न होते हैं, वे सूईकी नोकपर रक्खी हुई सरसोंके समान स्थायी नहीं हैं।"
यदि अतीत और अनागत पदार्थोंको भी ज्ञानमें कारण माना जाय, तो अर्थक्रियाकारी होनेसे उनके अतीतत्व, और अनागतत्वका अभाव हो जाता है।
१. छाया-न निधानगता भग्नाः पुंजो नास्त्यनागते । निर्वत्ता नैव तिष्ठन्ति आराने सर्षपोपमाः ॥ २०