________________
१४८
श्रीमद्राजचन्द्रजनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १६ भेनादेकस्यापि प्रमाणफलव्यवस्थेति चेत् , नैवम् । स्वभावभेदमन्तरेणान्यव्यावृत्तिभेदस्यानुपपत्तेः। कथं च प्रमाणस्य फलस्य चाप्रमाणाफलव्यावृत्त्या प्रमाणफलव्यवस्थावत् प्रमाणान्तरफलान्तरव्यावृत्त्याप्यप्रमाणत्वस्याफलत्वस्य च व्यवस्था न स्यात् ? विजातीयादिव सजातीयादपि व्यावृत्तत्वाद् वस्तुनः। तस्मात् प्रमाणात् फलं कथञ्चिद्भिन्नमेवेष्टव्यं । साध्यसाधनभावन प्रतीयमानत्वात् । ये हि साध्यसाधनभावेन प्रतीयते ते परस्परं भिद्यते यथा कुठारच्छिदिक्रिये इति ।।
एवं योगाभिप्रेतः प्रमाणात् फलस्यैकान्तभेदोऽपि निराकर्तव्यः तस्यैकप्रमातृतादात्म्येन प्रमाणात् कथञ्चिदभेदव्यवस्थितेः प्रमाणतया परिणतस्यैवात्मनः फलतया परिणतिप्रतीतेः यः प्रमिमीते स एवोपादत्ते परित्यजति उपेक्षते चेति सर्वव्यवहारिभिरस्खलितमनुभवात् । इतरथा स्वपरयोः प्रमाणफलव्यवस्थाविप्लवः प्रसज्यत इत्यलम् ।।
अथवा पूर्वार्द्धमिदमन्यथा व्याख्येयं । सौगताः किलेत्यं प्रमाणयन्ति | सर्वं सत् क्षणिकम् । यतः सर्वं तावद् घटादिकं वस्तु मुद्गरादिसंनिधौ नाशं गच्छद् दृश्यते । तत्र येन स्वरूपेणान्त्यावस्थायां घटादिकं विनश्यति तचेतत्स्वरूपमुत्पन्नमात्रस्य विद्यते तदानीमुत्पादानन्तरमेव तेन विनष्टव्यम्, इति व्यक्तमस्य क्षणिकत्वम् ।।
भेद होनेके कारण, प्रमाणके एक रूप होनेपर भी उसके प्रमाणरूप होनेका और फलरूप होनेका निश्चय होता है। समाधान-यह ठीक नहीं। क्योंकि भिन्न-भिन्न स्वभावोंके अभावमें व्यावृत्तियोंमें भेदका होना नहीं वनता । तथा, जिस प्रकार अप्रमाणकी व्यावृत्तिसे प्रमाणको प्रमाणरूपताका और अफलकी व्यावृत्तिसे फलकी फलरूपताका निश्चय होता है, वैसे ही प्रमाणान्तरकी व्यावृत्तिसे प्रमाणके अप्रमाणत्वका और फलान्तरकी व्यावृत्तिसे फलके अफलत्वका निश्चय मानना चाहिये। क्योंकि जैसे आप लोग विजातीय वस्तुसे व्यावृत्ति मानते हैं, वैसे ही सजातीय वस्तुसे भी व्यावृत्ति माननी चाहिये। अतएव प्रमाण और उसका फल कथंचित् भिन्न हैं, क्योंकि दोनों साध्य-साधन भावरूपसे प्रतीयमान होते हैं। जो साध्य-साधन भावसे प्रतीयमान होते हैं, वे परस्पर भिन्न होते हैं, जैसे कुठार और छेदनक्रिया।
इससे प्रमाण और प्रमाणके फलका एकान्त भेद माननेवाले यौगोंका भी निराकरण हो जाता है। क्योंकि जो आत्मा ज्ञेय पदार्थको यथार्थरूपसे जानती है वही आत्मा उस पदार्थको ग्रहण करती है, उसका त्याग करती है और उसकी उपेक्षा करती है यह सवको दृढ़ अनुभव होता है। इससे प्रमाणरूपसे परिणत हुई आत्माकी ही फलरूपसे जो परिणति होती है, उसका निर्णायक ज्ञान होनेके कारण, इस प्रमाणफलका एक प्रमाताके साथ तादात्म्य होनेसे, प्रमाण द्वारा उसके कथंचित् अभेदकी सिद्धि होती है। यदि प्रमाण और उसके फलमें कथंचित् अभेद न माना जाये-दोनोंमें सर्वथा अभेद माना जाये तो अपना प्रमाण और अपना फल, तथा दूसरेका प्रमाण और दूसरेका फल-इस व्यवस्थाके नाशका-ही प्रसंग उपस्थित हो जाता है। (विज्ञानादतमें स्व और पर दोनों विज्ञानरूप माने गये हैं, अतएव दोनोंमें भेदका अभाव होनेसे स्वप्रमाण और स्वफल, तथा परप्रमाण और परफलकी व्यवस्थाका अभाव हो जाता है)।
(२) पूर्वपक्ष-'सम्पूर्ण पदार्थ भणिक हैं' ( सर्व सत् क्षणिकं )। क्योंकि सभी घट आदि पदार्थ मुद्गर आदिका संयोग होने पर नष्ट होते हुए देखे जाते हैं। घट आदि पदार्थ अन्त्य अवस्थामें जिस स्वरूपसे विनाशको प्राप्त होते हैं, वही स्वरूप उत्पन्नमात्र पदार्थोंका होता है। अतएव उत्पत्तिके बाद ही घट आदि पदार्थ नष्ट हो जाते हैं, इसलिये सम्पूर्ण पदार्थ क्षणिक है। स्पष्टार्थ-बौद्धोंके अनुसार, प्रत्येक पदार्थ क्षणिक है, क्योंकि नाश होना पदार्थोंका स्वभाव है। यदि नाश होना पदार्थोंका स्वभाव न हो, तो पदार्थ दूसरी वस्तुके संयोगसे भी नष्ट नहीं हो सकते। पदार्थोंका यह क्षणिक स्वभाव पदार्थों की आरम्भ और अन्त दोनों अवस्थाओंमें समान है। यदि पदार्थोंको उत्पन्न होनेके वाद नाशमान न माना जाय, तो