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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १५] स्याद्वादमञ्जरी १४१ प्रतिपद्यमानेनायुष्मता संज्ञान्तरेण कमैव प्रतिपन्नं । तस्यैवस्वरूपत्वात् अचेतनत्वाच्च ।। यस्तु प्राकृतिकवैकारिकदाक्षिणभेदात् त्रिविधो बन्धः। तद्यथा प्रकृतावात्मज्ञानाद् ये प्रकृतिमुपासते तेषां प्राकृतिको वन्धः। ये विकारानेव भूतेन्द्रियाहङ्कारवुद्धोः पुरुपबुद्धयोपासते तेषां वैकारिकः । इष्टापूर्ते दाक्षिणः । पुरुपतत्त्वानाभिज्ञो हीष्टापूर्तकारी कामोपहतमना वध्यत इति । "इष्टापूर्त मन्यमाना वरिष्टं नान्यच्छेयो येऽभिनन्दति मूढाः । नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेन भूत्वा इमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति ।।१२ इति वचनात् । स त्रिविधोऽपि कल्पनामात्रं कथञ्चिद् मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगेभ्योऽभिन्नस्वरूपत्वेन कर्मवन्धहेतुष्वेवान्तर्भावात् । वन्धसिद्धौ च सिद्धस्तस्यैव निर्बाधः संसारः । बन्धमोक्षयोश्चैकाधिकरणत्वाद् य एव वद्धः स एव मुच्यत इति पुरुपस्यैव मोक्षः आबालगोपालं तथाप्रतीतेः॥ प्रकृतिपुरुपविवेकदर्शनात् प्रवृत्तेरुपरतायां प्रकृतौ पुरुषस्य स्वरूपेणावस्थानं मोक्ष इति चेत् । न । प्रवृत्तिस्वभावायाः प्रकृतेरौदासीन्यायोगात् । अथ पुरुपार्थनिवन्धना तस्याः प्रवृत्तिः। यदि कहो कि उत्पन्न होनेवाले सभी पदार्थों का कारण प्रकृति है तो आप लोगोंने नामान्तरसे कर्मको ही स्वीकार किया है। क्योंकि कर्मका यह स्वरूप है और वह अचेतन है। अतएव बन्ध पुरुपके ही मानना चाहिये, प्रकृतिके नहीं। सांख्य-प्राकृतिक, वैकारिक, और दाक्षिणके भेदसे वन्ध तीन प्रकारका होता है। प्रकृतिको आत्मा समझकर जो प्रकृतिकी उपासना करते हैं, उनके प्राकृतिक बन्ध होता है। जो पाँच भूत, इन्द्रिय, अहंकार, और बुद्धिरूप विकारोंको पुरुष मानकर उपासना करते हैं उनके वैकारिक बन्ध होता है। जो यज्ञ दान आदि कर्म करते हैं उनके दाक्षिण बन्ध होता है। आत्माको न जानकर, सांसारिक इच्छाओंसे यज्ञ, दान आदि कर्म करनेसे दाक्षिण बन्ध होता है । कहा भी है "जो मूढ़ पुरुष यज्ञ दान आदिको ही सबसे श्रेष्ठ मानते हैं, यज्ञ दान आदिके अतिरिक्त किसी भी शुभ कर्मकी प्रशंसा नहीं करते, वे लोग स्वर्गमें उत्पन्न होते हैं, और अन्तमें फिर मनुष्य लोकमें अथवा इससे भी हीन लोकमें जन्म लेते हैं।" जैन-उक्त तीनों प्रकारका वन्ध मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगमें गभित हो जाता है, अतएव उसे पृथक् स्वीकार करना ठीक नहीं। अतएव जीवके बन्ध सिद्ध होनेपर, जीवके ही संसारकी भी सिद्धि होती है। तथा, जो बँधता है, वह कभी मुक्त भी होता है, अतएव बन्ध और मोक्षका एक हो अधिकरण होनेसे पुरुषके मोक्ष भी सिद्ध होता है। अतएव 'पुरुषके न वन्ध होता है, न मोक्ष' यह कहना अयुक्तियुक्त है। शंका-जिस समय प्रकृति और पुरुषमें विवेकख्याति उत्पन्न होती है, प्रकृति प्रवृत्तिसे मुंह मोड़ लेती है, उस समय पुरुष अपने स्वरूपमें अवस्थित हो जाता है, इसे ही मोक्ष कहते हैं। समाधानप्रकृतिका स्वभाव प्रवृत्ति करना ही है, अतएव वह प्रकृति प्रवृत्तिसे उदासीन नहीं हो सकती। शंका१. एतल्लक्षणं-बापीकूपतडागादिदेवतायतनानि च । अन्नप्रदानमारामाः पूर्तमाः प्रचक्षते । एकाग्निकर्महवनं त्रेतायां यश्च हयते । अन्तर्वेद्यां च यद्दानमिष्टं तदभिधीयते ॥ २. मुंडक उ०१-२-१०। ३. मिथ्या विपरीतं दर्शनं मिथ्यादर्शनम् । सावद्ययोगेभ्यो निवृत्त्यभावः अविरतिः। प्रकर्षेण माद्यत्यनेनेति प्रमादः । विषयक्रीडाभिष्वङ्गः। कलुषयन्ति शुद्धस्वभावं सन्तं कर्ममलिनं कुर्वन्ति जीवमिति कषायाः। कायवाङ्मनसां कर्म योगः।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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