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श्रीमदाजचन्द्रजेनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १५ न खल्वतिकोपनत्वादिना समारोपिताग्नित्वो माणवकः कदाचिदपि मुख्याग्निसाध्या दाहपाकाद्यर्थक्रियां कर्तुमीश्वरः । इति चिच्छक्तरेव विषयाध्यवसायो घटते न जडरूपाया बुद्धेरिति । अत एव धर्माद्यष्टरूपतापि तस्या वाङ्मात्रमेव, धर्मादीनामात्मधर्मत्वात् । अत एव चाहकारोऽपि न बुद्धिजन्यो युज्यते, तस्याभिमानात्मकत्वेनात्मधर्मस्याचेतनादुत्पादायोगात् ॥
अम्बरादीनां च शब्दादितन्मात्रजत्वं प्रतीतिपराहतत्वेनैव विहितोत्तरम् । अपि च, सर्ववादिभिस्तावदविगानेन गगनस्य नित्यत्वमङ्गीक्रियते । अयं च शब्दतन्मात्रात् तस्याप्याविर्भावमुद्भावयन्नित्यैकान्तवादिनां च धुरि आसनं न्यासयन्नसंगतप्रलापीव प्रतिभाति । न च परिणामिकारणं स्वकार्यस्य गुणो भवितुमर्हतीति "शव्दगुणमाकाशम्" इत्यादि वाङ्मात्रम् । वागादीनां चेन्द्रियत्वमेव न युज्यते। इतरासाध्यकार्यकारित्वाभावात् । परप्रतिपादनग्रहणविहरणमलोत्सर्गादिकार्याणामितरावयवैरपि साध्यत्वोपलव्धेः। तथापि तत्त्वकल्पने इन्द्रियसंख्या न व्यवतिष्ठते, अन्याङ्गोपाङ्गानामपीन्द्रियत्वप्रसङ्गात् ।
यच्चोक्तं 'नानाश्रयायाः प्रकृतेरेव बन्धमोक्षौ संसारश्च न पुरुषस्य' इति । तदप्यसारम् । अनादिभवपरम्परानुबुद्धया प्रकृत्या सह यः पुरुषस्य विवेकाग्रहणलक्षणोऽविष्वग्भावः स एव चेन्न बन्धः, तदा को नामान्यो बन्धः स्यात् । प्रकृतिः सर्वोत्पत्तिमतां निमित्तम् इति च
'अचेतन बुद्धि चेतना सहित जैसी प्रतिभासित होती है', यहाँ 'इव' ( जैसी) शब्दसे अचेतन बुद्धिमें चेतनाका आरोप किया गया है। परन्तु आरोपसे अर्थक्रियाको सिद्धि नहीं होती। जैसे यदि किसी बालकका अत्यन्त क्रोधी स्वभाव देख कर उसका अग्नि नाम रख दिया जाय, परन्तु वह अग्निकी जलाने, पकाने आदि क्रियाओंको नहीं कर सकता, इसी प्रकार विषयोंका-ज्ञेय पदार्थोंका-ज्ञान चेतनाशक्तिसे ही हो सकता है, अचेतन बुद्धिमें चेतनाका आरोप करने पर भी बुद्धिसे पदार्थोंका ज्ञान संभव नहीं। अतएव आप लोगोंने जो बुद्धि के धर्म आदि आठ गुण माने हैं, वे भी केवल वचनमात्र हैं, क्योंकि धर्म आदि आत्माके ही गुण हो सकते हैं, अचेतन बुद्धिके नहीं। इसीलिये अहंकारको भी बुद्धिजन्य नहीं मानना चाहिये, क्योंकि अहंकार अभिमान रूप है, इसलिये वह आत्मासे हो उत्पन्न होता है, अचेतन बुद्धिसे उत्पन्न नहीं हो सकता।
(३) आकाश आदिका शब्द आदि पाँच तन्मात्राओंसे उत्पन्न होना अनुभवके सर्वथा विरुद्ध है। तथा, सब लोगोंने आकाशको नित्य स्वीकार किया है; नित्य एकान्तवादको मानकर भी केवल सांख्य लोग ही उसकी शब्द तन्मात्रासे उत्पत्ति मान कर असंगत प्रलाप करते हैं। तथा, परिणामी (उपादान) वस्तुके परिणाममें कारण है, वह अपने कार्यका गुण नहीं हो सकता, इसलिये "शब्दको आकाशका गुण मानना" भी कथनमात्र है । तथा, वाक् आदि इन्द्रियाँ नहीं कही जा सकती, क्योंकि दूसरोंको प्रतिपादन करना, किसी वस्तुको ग्रहण करना, विहार करना, मल त्याग करना आदि, वाक, पाणि, पाद, पायु आदि कर्मेन्द्रियोंसे होने वाले कार्य शरीरके अन्य अवयवोंसे भी किये जा सकते हैं; जैसे उंगलियों द्वारा भी दूसरोंको प्रतिपादित किया जा सकता है। अतएव वाक् आदि शरीरके अवयव हैं, इन्हें इन्द्रियाँ नहीं कह सकते। यदि इतर अवयवों द्वारा न किये जानेवाले कार्योंके कर्तृत्वका अभाव होने पर भी वाक् आदिको इन्द्रिय माना जाय, तो इन्द्रियोंकी ग्यारह संख्या ही नहीं बन सकती, क्योंकि शरीरके अन्य अंग-उपांगोंको भी इन्द्रियत्वका प्रसंग उपस्थित हो जाता है।
(४) तथा, 'अनेक पुरुपोंके आश्रय रहनेवाली प्रकृतिके ही बन्ध, मोक्ष और संसार होते हैं, पुरुपके नहीं', यह कहना भी ठीक नहीं। क्योंकि आप लोगोंके मतमें यदि अनादि भव-परम्परासे बद्ध और पुरुपके विवेकको न समझने वाले अपृथग्भावको बन्ध नहीं कहते, तो फिर आपके मतमें बन्धका क्या लक्षण है?
१. वैशेपिकसूत्रे ।