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अन्य.यो. व्य. श्लोक १५1
स्याद्वादमञ्जरी पञ्चतन्मात्रेभ्यश्च पञ्चमहाभूतान्युत्पद्यन्ते । तद्यथा शब्दतन्मात्रादाकाशं शब्दगुणम् । शव्दतन्मात्रसहितात् स्पर्शतन्मात्रा वायुःशव्दस्पर्शगुणःशब्दस्पर्शतन्मात्रसहिताद्रूपतन्मात्रात् तेजः शब्दस्पर्शरूपगुणं । शब्दस्पर्शरूपतन्मात्रसहिताद् रसतन्मात्रादापःशब्दस्पर्शरूपरसगुणाः। शब्दस्पर्शरूपरसतन्मात्रसहिताद् गन्धतन्मात्रात् शव्दस्पर्शरूपरसगन्धगुणा पृथिवी जायत इति।। पुरुपस्तु
"अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः।
अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म आत्मा कापिलदर्शने ॥" इति । अन्धपगुवत् प्रकृतिपुरुषयोः संयोगः। चिच्छक्तिश्च विषयपरिच्छेदशून्या । यत इन्द्रियद्वारेण सुखदुःखादयो बुद्धौ प्रतिसंक्रामन्ति बुद्धिश्चोभयमुखदर्पणाकारा । ततस्तस्यां चैतन्यशक्तिः प्रतिविम्वते । ततः सुख्यहं दुःख्यहमित्युपचारः । आत्मा हि स्वं बुद्धरव्यतिरिक्तमभिमन्यते । आह च पतञ्जलि:-"शुद्धोऽपि पुरुषः प्रत्ययं बौद्धमनुपश्यति तमनुपश्यन् अतदात्मापि तदात्मक इव प्रतिभासते'' इति । मुख्यतस्तु बुद्धरेव विषयपरिच्छेदः। तथा च वाचस्पतिः-"सर्वो व्यवहर्ता आलोच्य नन्वहमत्राधिकृत इत्यभिमत्य कर्तव्यमेतन्मया इत्यध्यववस्यति । ततश्च प्रवर्तते इति लोकतः सिद्धम् । तत्र कर्तव्यमिति योऽयं निश्चयश्चितिसन्निधानापन्नचैतन्याया बुद्धः सोऽध्यवसायो बुद्धरसाधारणो व्यापारः" इति । चिच्छक्तिसन्निधानाचाचेतनापि बुद्धिश्चेतनावतीवाभासते । वादमहार्णवोऽप्याह । “बुद्धिदर्पणसंक्रान्तमर्थप्रतिबिआदिका ज्ञान नहीं होता। अहंकारसे चक्षु, श्रोत्र, प्राण, रसना, स्पर्श ( वुद्धीन्द्रिय ); वाक् पाणि, पाद, गुदा, लिंग ( कर्मेंद्रिय) और मन ये ग्यारह इन्द्रियां उत्पन्न होती है।
पाँच तन्मात्राओंसे पांच महाभूत पैदा होते है । शब्द तन्मात्रासे आकाश पैदा होता है। शब्द और स्पर्श तन्मात्राओंसे शब्द और स्पर्शके गुणसे युक्त वायु; शब्द, स्पर्श और रूप तन्मात्राओंसे शब्द, स्पर्श और रूप गुणोंसे युक्त अग्नि; शब्द, स्पर्श, रूप और रस तन्मात्राओंसे शब्द, स्पर्श, रूप, और रससे युक्त जल; तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध तन्मात्राओंसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंधसे युक्त पृथिवी उत्पन्न होती है।
पुरुष तो"सांख्य दर्शनमें अमूर्त, चेतन, भोक्ता, नित्य, सर्वव्यापी, क्रिया रहित, अकर्ता, निर्गुण और सूक्ष्म" है ।
अंधे और लंगड़े पुरुषकी तरह प्रकृति और पुरुषका संबंध होता है । चित् शक्ति (पुरुष) स्वयं पदार्थोंका ज्ञान नहीं कर सकती, क्योंकि सुख-दुख इनद्रियों द्वारा ही बुद्धिमें प्रतिभासित होते हैं। बुद्धि दोनों तरफसे दर्पणकी तरह है, इसमें एक ओर चेतनाशक्ति और दूसरी ओर बाह्य जगत् झलकता है। बुद्धिमें चेतनाशक्तिके प्रतिबिम्ब पड़नेसे आत्मा ( पुरुष ) अपनेको बुद्धिसे अभिन्न समझता है, और इसलिये आत्मामें 'मैं सुखी हूँ', 'मैं दुखी हूँ', ऐसा ज्ञान होता है । पतजंलिने भी कहा है-“यद्यपि पुरुष स्वयं शुद्ध है, परन्तु वह बुद्धि सम्बन्धी अध्यवसायको देखकर, बुद्धिसे भिन्न होकर भी अपने आपको बुद्धिसे अभिन्न समझता है।" वास्तवमें वह ज्ञान बुद्धिका ही होता है। वाचस्पतिने भी कहा है-"लोकके कार्यों में प्रवृत्ति करनेवाले सभी लोग यह मानते हैं कि इसमें हमारा अधिकार है, और यह हमारा कर्तव्य है, ऐसा समझकर निश्चय करते हैं। निश्चय करनेके पश्चात् कार्यमें प्रवृत्ति होती है, इस प्रकार लोगोंमें परिपाटी चलती है। यहाँ बुद्धिमें चेतनाशक्तिका प्रतिबिम्ब पड़नेसे ही कर्तव्य-बुद्धिका निश्चय होता है; यह निश्चय बुद्धिका असाधारण व्यापार है।" बुद्धिमें चेतनाशक्तिका प्रतिबिम्ब पड़नेसे अचेतन बुद्धि चेतनकी तरह प्रतिभासित होने लगती है। वादमहार्णवमें भी कहा है-"दर्पणके समान बुद्धिमें पड़नेवाला पदार्थोंका प्रतिबिम्ब पुरुषरूपी दर्पणमें १. व्यासभाष्ये।
२. सांख्यतत्त्वकौमुद्यां।। ३. सांख्यग्रन्थविशेषः । जैनाचार्यः अभयदेवसूरिरपि वादमहार्णवनामग्रन्थं कृतवान् ।
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