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श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १५ महाभूतभेदात् त्रयोविंशतिविधं व्यक्तम् । पुरुषश्चिद्रूप इति । तथा च ईश्वरकृष्णः
"मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त ।
षोडशकश्च विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः॥" प्रीत्यप्रीतिविषादात्मकानां लाघवोपष्टम्भगौरवधर्माणां परस्परोपकारिणां त्रयाणां गणानां सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः। प्रधानमव्यक्तमित्यनर्थान्तरम् । तच अनादिमध्यान्तमनवयवं साधारणमशब्दमस्पर्शमरूपमगन्धमव्ययम् । प्रधानाद् बुद्धिर्महदित्यपरपर्यायोत्पद्यते । योऽयमध्यवसायो गवादिषु प्रतिपत्तिः एवमेतद् नान्यथा, गौरेवायं नाश्वः, स्थाणुरेप नायं.पुरुष इत्येपा बुद्धिः । तस्यास्त्वष्टौ रूपाणि धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्यरूपाणि चत्वारि सात्त्विकानि । अधर्मादीनि तु तत्प्रतिपक्षभूतानि चत्वारि तामसानि ।।
बुद्धेः अहङ्कारः। स च अभिमानात्मकः । अहं शब्देऽहं स्पर्शेऽहं रूपेऽहं गन्धेऽहं रसेऽहं स्वामी अहमीश्वरः असौ मया हतः ससत्वोऽहममुं हनिष्यामीत्यादिप्रत्ययरूपः। तस्मात् पञ्चतन्मात्राणि शव्दतन्मात्रादीनि अविशेपरूपाणि सूक्ष्मपर्यायवाच्यानि । शव्दतन्मात्राद् हि शब्द एवोपलभ्यते, न पुनरुदात्तानुदात्तस्वरितकम्पितपड्जादिभेदाः । षड्जादयः शब्दविशेषादुपलभ्यन्ते । एवं स्पर्शरूपरसगन्धतन्मात्रेष्वपि योजनीयमिति । तत एव चाहङ्काराद् एकादशेन्द्रियाणि च । तत्र चक्षुः श्रोत्रं घ्राणं रसनं त्वगिति पंचबुद्धीन्द्रियाणि । वाक्पाणिपादपायूपस्थाः पञ्चकर्मेन्द्रियाणि । एकादशं मन इति ।। गन्ध ( पाँच तन्मात्रा), ९-१९ घ्राण, रसना, चक्षु, स्पर्श और श्रोत्र (पाँच बुद्धीन्द्रिय), और वाक् (वचन) पाणि (हाथ ), पाद (पाँव), पायु (गुदा), उपस्थ (लिंग) (पांच कर्मेन्द्रिय), तथा मन, २०-२४ आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी (पांच महाभूत), तथा २५ प्रकृति और विकृति रहित पुरुष (चित्)। ईश्वरकृष्णने कहा भी है
"पच्चीस तत्त्वोंका मूल कारण प्रकृति (प्रधान-अव्यक्त) है, यह स्वयं किसीका विकार नहीं है (अविकृति )। महत्, अहंकार और पांच तन्मात्रायें ये प्रकृति और विकृति दोनों है ( महत्त्व अहंकारकी प्रकृति, और मूल प्रकृतिको विकृति है । अहंकार पाँच तन्मात्रा और इन्द्रियोंकी प्रकृति, और महान्की विकृति है। पांच तन्मात्रायें पंचभूतोंकी प्रकृति और अहंकारको विकृति है )। तथा ग्यारह इन्द्रियाँ और पांच महाभूत ये सोलह तत्त्व विकृति रूप ही हैं। पुरुष प्रकृति और विकृति दोनोंसे रहित है।"
एक दूसरेका उपकार करनेवाले प्रीति और लाघव रूप सत्त्व, अप्रीति और उपष्टंभ रूप रज, और विषाद और गौरव रूप तम गुणोंकी साम्य अवस्थाको प्रकृति, प्रधान अथवा अव्यक्त कहते हैं। यह प्रधान आदि, मध्य, अन्त और अवयव रहित है, साधारण है, शब्द, स्पर्श, रूप और गन्धसे रहित, तथा अविनाशी है। प्रधानसे बुद्धि अथवा महान् उत्पन्न होता है। यह गौ ही है, घोड़ा नहीं; पुरुष ही है, ठूठ नहीं, इस प्रकार किसी वस्तुके निश्चयरूप ज्ञानको बुद्धि कहते हैं। बुद्धिके धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य ( सात्त्विक) और अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, और अनैश्वर्य ( तामसिक ) ये आठ गुण हैं।
बुद्धिसे अहंकार होता है। यह अहंकार 'मैं सुनता हूँ, मैं स्पर्श करता हूँ, मैं देखता हूँ, मैं सूंघता हूँ, मैं चखता हूँ, मैं स्वामी हूँ, मैं ईश्वर हूँ, यह मैंने मारा है, मैं बलवान हूँ, मैं इसे मारूंगा' आदि अभिमानरूप होता है । अहंकारसे पांच तन्मात्राएँ होती हैं। ये शब्द आदि पांच तन्मात्राएँ सामान्यरूप और सूक्ष्म पर्याय रूप हैं। शब्द तन्मात्रासे केवल शब्दका ही ज्ञान होता है, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, कंपित और षड्ज आदि शब्दके विशेषरूपोंका नहीं, क्योंकि षड्ज आदिका ज्ञान विशेष शब्दसे ही होता है । इसी प्रकार स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि तन्मात्राओंसे सामान्यरूपसे स्पर्श, रूप, रस, गंध, आदिका ज्ञान होता है, विशेप स्पर्श
१. सांख्यकारिका ३!
२. षड्जऋषभगान्धारा मध्यमः पंचमस्तथा। धैवतो निषधः सप्त तन्त्रीकण्ठोद्भवाः स्वराः ॥ अभिधानचिन्तामणी ६-३७ ।