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श्रीमद्राजचन्द्रजेनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १४ विशेपव्यक्तिष्वेका अनेका वा ? अनेका चेत् तस्या अपि विशेपत्वापत्तिः, अनेकरूपत्वैकजीवितत्वाद् विशेपाणाम् । ततश्च तस्या अपि विशेषत्वान्यथानुपपत्तेावृत्त्या भाव्यम् । व्यावृत्तरपि च व्यावृत्तौ विशेपाणामभाव एव स्यात् । तत्स्वरूपभूताया व्यावृत्तः प्रतिषिद्धत्वात्; अनवस्थापाताच्च । एका चेत् सामान्यमेव संज्ञान्तरेण प्रतिपन्नं स्शत् । अनुवृत्तिप्रत्ययलक्षणाव्यभिचारात् । किञ्च, अमी विशेषाः सामान्याद् भिन्ना अभिन्ना वा ? भिन्नाश्चेद् मण्डूकजटाभारानुकाराः । अभिन्नाश्चत् तदेव तत्स्वरूपवत् । इति सामान्यकान्तवादः॥
पर्यायनयान्वयिनस्तु भाषन्ते । विविक्ताः क्षणक्षयिणो विशेपा एव परमार्थः। ततो विष्वग्भूतस्य सामान्यस्याप्रतीयमानत्वात् । न हि गवादिव्यक्त्यनुभवकाले वर्णसंस्थानात्मकं व्यक्तिरूपमपहाय, अन्यत्किञ्चिदेकमनुयायि प्रत्यक्ष प्रतिभासते। तादृशस्यानुभवाभावात् । तथा च पठन्ति
"एतास पञ्चस्ववभासनीष प्रत्यक्षबोधे स्फटमङ्गलीषु ।
साधारणं रूपमवेक्षते यः शृङ्ग शिरस्यात्मन ईक्षते सः" । एकाकारपरामर्शप्रत्ययस्तु स्वहेतुदत्तशक्तिभ्यो व्यक्तिभ्य एवोत्पद्यते । इति न तेन सामान्यसाधनं न्याय्यम् ॥
किञ्च, यदिदं सामान्य परिकल्प्यते तदेकमनेकं वा ? एकमपि सर्वगतमसर्वगतं वा ? सर्वगतं चेत्, किं न व्यक्त्यन्तरालेपूपलभ्यते । सर्वगतैकत्वाभ्युपगमे च तस्य यथा गोत्व
उन पदार्थों को सामान्य ही कहना चाहिये। तथा, विशेषोंके द्वारा की हुई व्यावृत्ति सब विशेषोंमें एक ही व्यावृत्ति होती है, अथवा सबमें अलग-अलग ? यदि व्यावृत्ति अनेक है, तो व्यावृत्तिको भी विशेष मानना चाहिये, क्योंकि अनेक रूपको ही विशेष कहते हैं। अतएव व्यावृत्तिके विशेष सिद्ध होने पर व्यावृत्तिमें भी व्यावृत्ति होनी चाहिये, क्योंकि विशेषको व्यावृत्तिके साथ अन्यथानुपत्ति है। तथा, व्यावृत्तिमें व्यावृत्ति माननेपर, व्यावृत्ति व्यावृत्ति रूप सिद्ध नहीं हो सकती, अतएव विशेषोंका अभाव मानना होगा, और इस प्रकारको व्यावृत्ति प्रतिषिद्ध है । तथा, एक व्यावृत्तिमें अनेक व्यावृत्ति माननेसे अनवस्था दोष आता है। यदि सव विशेषोंमें एक ही व्यावृत्ति स्वीकार करो, तो उसे सामान्य हो मानना चाहिये; क्योंकि अनुवृति प्रत्ययसे विरोध नहीं आता। तथा, ये विशेष सामान्यसे भिन्न हैं, या अभिन्न ? विशेषोंको सामान्यसे भिन्न मानना मण्डूकके जटाभारका ही अनुकरण करना है। यदि विशेष सामान्यसे अभिन्न है, तो उन्हें सामान्य ही कहना होगा। अतएव सामान्य एकान्त वाद मानना ही उचित है।
(२) पर्यायास्तिक नयको स्वीकार करने वाले बौद्ध : भिन्न और क्षण-क्षणमें नष्ट होनेवाले विशेष ही तत्त्व हैं, क्योंकि विशेषको छोड़ कर सामान्य कोई अलग वस्तु नहीं है। गौको जानते समय हमें गौके वर्ण, आकार आदिके विशेष ज्ञानको छोड़ कर गौका केवल सामान्य ज्ञान नहीं होता है। क्योंकि विशेष ज्ञानको छोड़ कर किसी पदार्थका सामान्य ज्ञान हमारे अनुभवके बाह्य है। कहा भी है
"जो पुरुष प्रत्यक्षसे स्पष्ट अलग-अलग दिखाई देनेवाली पांच उँगलियोंमें केवल सामान्य रूपको देखता है, वह पुरुष अपने सिरपर सींग ही देखता है, अतएव पदार्थोंके विशेष ज्ञानको छोड़ कर पदार्थोंका केवल सामान्य ज्ञान होना असम्भव है।"
तथा, एकरूप ज्ञान अपने कारणोंसे उत्पन्न होनेवाले व्यक्तियोंसे ही उत्पन्न होता है । अतएव सामान्य की सिद्धि न्यायसंगत नहीं।
तथा, सामान्य एक है, या अनेक ? यदि सामान्य एक है तो वह व्यापक है, या अव्यापक ? यदि सामान्य व्यापक है, तो वह दो व्यक्तियों ( गौओं) के बीचमें क्यों नहीं रहता ? तथा, सामान्यको सर्वगत
१. अशोकविरचितसामान्यदूषणदिक्ग्रन्थे ।