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अन्य. यो. व्य. श्लोक १४] स्याद्वादमञ्जरी
१२१ एतच्च पक्षत्रयमपि किञ्चित् चर्च्यते। तथाहि । संग्रहनयावलम्बिनो वादिनः प्रतिपादयन्ति । सामान्यमेव तत्त्वम् । ततः पृथग्भूतानां विशेषाणामदर्शनात् । तथा सर्वमेकम् । अविशेषेण सदितिज्ञानाभिधानानुवृत्तिलिङ्गानुमितसत्ताकत्वात् । तथा द्रव्यत्वमेव तत्त्वम् । ततोऽर्थान्तरभूतानां धर्माधर्माकाशकालपुद्गल जीवद्रव्याणामनुपलब्धः। किञ्च, ये सामान्यात् पृथग्भूता अन्योऽन्यव्यावृत्त्यात्मका विशेपाः कल्प्यन्ते, तेषु विशेषत्वं विद्यते न वा ? नो चेद् निःस्वभावताप्रसङ्गः। स्वरूपस्यैवाभावात् । अस्ति चेत् तईि तदेव सामान्यम् । यतः समानानां भावः सामान्यम् । विशेपरूपतया च सर्वेषां तेपामविशेषेण प्रतीतिः सिद्धेव ॥
अपि च विशेषाणां व्यावृत्तिप्रत्ययहेतुत्वं लक्षणम् । व्यावृत्तिप्रत्यय एव विचार्यमाणो न घटते । व्यावृत्तिर्हि विवक्षितपदार्थे इतरपदार्थप्रतिषेधः। विवक्षितपदार्थश्च स्वस्वरूपव्यवस्थापनमात्रपर्यवसायी, कथं पदार्थान्तरप्रतिषेधे प्रगल्भते । न च स्वरूपसत्त्वादन्यत् तत्र किमपि, येन तन्निषेधःप्रवर्तते । न च व्यावृत्तौ क्रियमाणायां स्वात्मव्यतिरिक्ता विश्वत्रयवर्तिनोऽतीतवर्तमानानागताः पदार्थास्तस्माद् व्यावर्तनीयाः। ते च नाज्ञातस्वरूपा व्यावर्तयितुं शक्याः। ततश्चैकस्यापि विशेपस्य परिज्ञाने प्रमातुः सर्वज्ञत्वं स्यात् । न चैतत्प्रातीतिक यौक्तिकं वा। व्यावृत्तिस्तु निषेधः। स चाभावरूपत्वात् तुच्छः कथं प्रतीतिगोचरमञ्चति खपुष्पवत् ॥
तथा येभ्यो व्यावृत्तिः ते सद्रपा असद्पा वा ? असदूपाश्चेत् तहि खरविषाणात किं न व्यावृत्तिः। सदूपाश्चेत् सामान्यमेव । या चेयं व्यावृत्तिविशेषैः क्रियते सा सर्वासु
इन तीनों पक्षोंकी यहाँ कुछ चर्चा की जाती है : (१) संग्रहनयको स्वीकार करनेवाले अद्वैतवादीमीमांसक-सांख्य : सामान्य ही एक तत्त्व है, सामान्यसे भिन्न विशेष दृष्टिगोचर नहीं होते। सब पदार्थोंका सामान्य रीतिसे ज्ञान होता है, और सब पदार्थ 'सत्' कहे जाते हैं, अतएव समस्त पदार्थ एक हैं। अतएव द्रव्यत्व ही एक तत्त्व है, क्योंकि द्रव्यत्वको छोड़ कर धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव नहीं पाये जाते । तथा, सामान्यसे भिन्न और एक दूसरेकी व्यावृत्ति रूप 'विशेष' स्वीकार करनेवाले वादियोंसे हम पछते हैं कि विशेषोंमें विशेषत्व रहता है, या नहीं? यदि विशेषोंमें विशेषत्व नहीं रहता तो इसका अर्थ यह हआ कि विशेष निस्वभाव है, क्योंकि विशेषोंमें निजस्वरूप विशेषत्व नहीं रहता। यदि विशेषोंमें विशेषत्व रहता है. तो इसी विशेषत्वको हम सामान्य कहते हैं। क्योंकि समानके भावको ही सामान्य कहा है, और विशेषरूपत्वसे इन सभी भावोंकी समान रूपसे होनेवाली प्रतीति सिद्ध ही है।
तथा, विवक्षित पदार्थमें दूसरे पदार्थक निषेध करनेको व्यावृत्ति कहते है, इसी व्यावृत्ति प्रत्ययके हेतको विशेष माना गया है ( जैसे घटमें पटके निषेध करनेसे घटकी पटसे व्यावृत्ति होती है)। परन्तु यह विवक्षित पदार्थ ( घट ) अपने स्वरूपको ही सिद्ध कर सकता है, दूसरे पदार्थों का निषेध नहीं कर सकता। स्वरूपके अस्तित्वको छोड़कर और कोई भी चीज नहीं है जिससे कि अन्य पदार्थों के निषेधकी आवश्यकता हो। यदि विवक्षित पदार्थ दूसरे पदार्थों के निषेध करनेमें भी समर्थ हो, तो उसे आत्मस्वरूप से भिन्न तीनों लोकोंके भत, भविष्य, वर्तमान पदार्थोंसे भी अपनी व्यावृत्ति करनी चाहिये । और जब तक तीनों लोकोंके भूत, भविष्य, और वर्तमान पदार्थों का ज्ञान न हो, उस समय तक इन पदार्थोकी व्यावृत्ति नहीं की जा सकती। इसलिये एक विशेषके ज्ञान करनेमें तीनों लोकोंके समस्त पदार्थोंसे उसकी व्यावृत्ति करनेके लिये प्रमाताको सर्वज्ञ होना पड़ेगा । यह न तो अनुभवसिद्ध है, और न युक्तिसे ही सिद्ध है । तथा, निषेधको ही व्यावृत्ति कहा गया है। यह व्यावृत्ति अभाव रूप होनेसे तुच्छ है, इसलिये आकाश-कुसुमकी तरह विश्वास योग्य नहीं है।
तथा, जिन पदार्थोंसे दूसरे पदार्थों की व्यावृत्ति की जाती है, वे पदार्थ सत् है, या असत् ? यदि असत हैं, तो असत खरविषाणसे भी घटको व्यावृत्ति की जानी चाहिये। यदि व्यावृत्त पदार्थोंको सत् मानो तो फिर