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________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायां [ अन्य. यो. व्य. श्लोक १३ अथ ये ब्रह्माद्वैतवादिनोऽविद्या अपरपर्यायमायावशात् प्रतिभासमानत्वेन विश्वत्रयवतिंवस्तुप्रपञ्चमपारमार्थिकं समर्थयन्ते, तन्मतमुपहसन्नाह माया सती चेद् द्वयतत्त्वसिद्धिरथासती हन्त कुतः प्रपञ्चः । मायैव चेदर्थसहा च तत्किं माता च वन्ध्या च भवत्परेषाम् ॥ १३ ॥ ११० कर्त्ता और कर्मका ज्ञान होना अनुभवसे सिद्ध है, इसलिये 'स्वयं ज्ञानमें क्रिया नहीं होती' ( स्वात्मनि क्रियाविरोधात् ), यह हेतु भी दूषित है । कुमारिलभट्ट - - हम लोगोंके अनुसार (१) पदार्थोंसे इन्द्रिय और बुद्धिका संबंध होने पर इन्द्रिय और बुद्धिसे ज्ञान पैदा होता है; इसके बाद (२) पदार्थों का प्राकट्य होता है ( अर्थप्राकट्य ); फिर (३) यह ज्ञान होता है कि पदार्थों का ज्ञान हुआ है; जैसे घटसे इन्द्रिय और बुद्धिका संबंध होनेसे घटका ज्ञान होनेपर यह ज्ञान होता है कि मैंने घटको जाना है । बादमें घटका ज्ञान होनेपर घटका प्राकट्य ( ज्ञातृत्व ) होता है । यह घटप्राकट्य ज्ञानके पहले नहीं होता, ज्ञानके उत्पन्न होनेपर ही होता है, अतएव यह ज्ञानसे उत्पन्न हुआ कहा जाता | यह अर्थ का प्राकट्य ज्ञानसे उत्पन्न होता अतएव हम अर्थप्राकट की अन्यथानुपपत्तिसे ज्ञानको जानते हैं ( तस्माद्यार्थापत्तिस्तया प्रवर्तकज्ञानस्योपलंभ : ) । हम लोग इस त्रिपुटी प्रत्यक्षको मानते हैं, इसलिये ज्ञान स्वसंवेदक नहीं हो सकता । जैन-आप लोग अर्थप्राकट्यको स्वतः सिद्ध नहीं कह सकते, जिससे अर्थप्राकट्यकी अर्थापत्तिसे ज्ञानकी उपलब्धि स्वीकार की जा सके । ज्ञातृत्व स्वतः सिद्ध है, और ज्ञान स्वतः सिद्ध नहीं, इसमें कोई हेतु नहीं है । वास्तवमें ज्ञातृत्वकी अपेक्षा ज्ञानका स्वतः सिद्ध होना अधिक मान्य हो सकता है । कुमारिलभट्ट——यदि आप लोग ज्ञानको स्वसंवेद्य कहते हैं तो हम अनुमान बनाते है - 'ज्ञान अनुभव रूप हो कर भी अनुभूति ( ज्ञान ) नहीं है, ज्ञेय होनेसे; घटकी तरह (ज्ञानं अनुभवरूपमपि अनुभूतिर्न भवति, अनुभाव्यत्वात्, घटवत् ), इसलिये ज्ञान स्वसंवेद्य नहीं सकता । जैन - पदार्थोंको जाननेकी अपेक्षा ज्ञान अनुभूति रूप तथा स्वयंका संवेदन करनेकी अपेक्षा अनुभाव्य दोनों ही है । अनुभाव्य रूप है । अतएव ज्ञान अनुभूति और न्यायवैशेषिक - ज्ञान स्वसंविदित नहीं होता, क्योंकि वह अनुव्यवसायगम्य है । हमारे मतमें 'यह घट है' इस व्यवसाय रूप ज्ञानके पश्चात् यह यह मानस ज्ञान होता है कि 'मैं इस घटको घट रूपसे जानता हूँ', इस अनुव्यवसाय रूप ज्ञानसे हो पदार्थोंका ज्ञान होता है, अतएव 'ज्ञान दूसरेसे प्रकाशित होता है, क्योंकि वह ईश्वरज्ञान से भिन्न होकर प्रमेय है, घटको तरह ' ( ज्ञानं स्वान्यप्रकाश्यं ईश्वरज्ञानान्यत्वे सति प्रमेयत्वात्, घटवत् ) । तथा, ज्ञानको दूसरेसे प्रकाशित माननेमें अनवस्था दोष नहीं आता, क्योंकि पदार्थको जानने मात्रसे ही प्रमाताका प्रयोजन सिद्ध हो जाता है । जैन - ( १ ) उक्त अनुमान 'विवादाध्यासितं ज्ञानं स्वसंविदितम्, ज्ञानत्वात्, ईश्वरज्ञानवत्' इस प्रत्यनुमानसे बाधित है। इसलिये ज्ञानको स्वसंवेदक ही मानना चाहिये । (२) यह अनुमान व्यर्थविशेष्य भी है, क्योंकि यहां 'ईश्वरज्ञानान्यत्व' हेतुके विशेष्य 'प्रमेयत्व' हेतुके कहने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । (३) उक्त हेतु अप्रयोजक होनेसे सोपाधिक भी है। क्योंकि 'स्वान्यप्रकाश्यं ईश्वरज्ञानान्यत्वे सति, प्रमेयत्वात्' यह तर्क ज्ञानके साथ व्याप्त न हो कर जड़ पदार्थोंके साथ व्याप्त है, क्योंकि ईश्वरज्ञानसे भिन्न हो कर प्रमेय होनेपर भी स्तंभ वगैरह जड़ पदार्थ ही अपनेको छोड़ कर दूसरेसे प्रकाशित होते हैं । अब अविद्या अथवा मायाके कारण तीनों लोकोंके वस्तु-प्रपंचको अपारमार्थिक स्वीकार करनेवाले ब्रह्माद्वैतवादियों का उपहास करते हुए कहते हैं— श्लोकार्थ --- यदि माया सत् रूप है, तो ब्रह्म और माया दो पदार्थों का सद्भाव होनेसे अद्वैत की सिद्धि
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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