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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १२] स्याद्वादमञ्जरी मुत्पाद्यत्वं घटते अजिज्ञासितेष्वपि योग्यदेशेषु विषयेषु तदुत्पादप्रतीतेः । न चार्थज्ञानमयोग्यदेशम | आत्मसमवेतस्यास्य समत्पादात। इति जिज्ञासामन्तरेणवार्थज्ञाने ज्ञानोत्पादप्रसङ्गः। अथोत्पद्यतां नामेदं को दोषः इति चेत् , नन्वेवमेव तज्ज्ञानज्ञानेऽप्यपरज्ञानोत्पादप्रसङ्गः। तत्रापि चैवमयम् । इत्यपरापरज्ञानोत्पादपरम्परायामेवात्मनो व्यापारात् न विषयान्तरसंचारः स्यादिति । तस्माद्यज्ज्ञानं तदात्मबोधं प्रत्यनपेक्षितज्ञानान्तरव्यापारम् , यथा गोचरान्तरग्राहिज्ञानात् प्राग्भावि गोचरान्तरग्राहिधारावाहिज्ञान प्रबन्धस्यान्त्यज्ञानम् । ज्ञानं च विवादाध्यासितं रूपादिज्ञानम् , इति न ज्ञानस्य ज्ञानान्तरज्ञेयता युक्तिं सहते ।। इति काव्यार्थः ॥ १२ ॥ पत्तोंके ढेरको सूईसे बींधते समय हमें ऐसा प्रतीत होता है कि हमने सभी पत्तोंका एक ही साथ वेधन किया है, परन्तु वास्तवमें इनके बींधनेमें सूक्ष्म क्रम रहता है, उसी तरह पदार्थके ज्ञान और ज्ञानके ज्ञानमें भी सूक्ष्म क्रम रहता है। यह ठीक नहीं। क्योंकि पदार्थज्ञानके ज्ञानकी उत्पत्ति, पदार्थज्ञानको उत्पत्तिके बाद उत्पन्न होनेवालो जिज्ञासासे होती है, अतएव पदार्थका ज्ञान और पदार्थके ज्ञान का ज्ञान-इनमें जिज्ञासाका व्यवधान होनेपर ही पदार्थके ज्ञानका ज्ञान उत्पन्न होता है, ऐसा आपने कहा है। अतः आप यह नहीं कह सकते कि एक ज्ञानके बाद ही दूसरा ज्ञान उत्पन्न होता है, ऐसा कोई क्रम उनमें नहीं है। तथा, जिज्ञासाओंसे ज्ञानोंका उत्पन्न होना घटित नहीं होता, क्योंकि योग्य देशोंमें, इन्द्रियोंके विषयोंको जिज्ञासाका अभाव होनेपर भी, पदार्थों का ज्ञान उत्पन्न हुआ देखा जाता है। पदार्थोंका ज्ञान पदार्थोके अयोग्य देशमें स्थित होनेपर नहीं होता, क्योंकि ज्ञेय पदार्थके ज्ञाताके आत्माके साथ समवेत होनेपर ही पदार्थके ज्ञानकी उत्पत्ति होती है । इस प्रकार (पदार्थके ज्ञानके ज्ञानको ) जाननेको इच्छाका अभाव होनेपर भी पदार्थक ज्ञानके ज्ञानकी उत्पत्ति होनेका प्रसंग उपस्थित होता है। यदि कहो कि पदार्थके ज्ञानका ज्ञान उसकी जिज्ञासाका अभाव होनेपर भी उत्पन्न होता है तो भले ही हो जाये, उसमें कौन-सा दोष आता है ? तो इसी प्रकार पदार्थके ज्ञानको जाननेके लिये अन्य ज्ञानकी उत्पत्तिका प्रसंग उपस्थित हो जायगा। फिर उस अन्य ज्ञानको जाननेके लिये भी अपर ज्ञानकी उत्पत्ति माननी पड़ेगी। इस प्रकार अपरापर ज्ञानको उत्पत्तिकी परंपराको जाननेमें लगे रहनेके कारण, आत्मा अन्य विषयभूत पदार्थके ज्ञानके ज्ञानको जाननेके लिये उपयुक्त न हो सकेगी। अतएव ज्ञानका विषय बनने वाले पदार्थज्ञानसे भिन्न विषयभूत घट आदिका निश्चय करने वाले ज्ञानसे ( अनंतर पूर्व-) समय में उत्पन्न, ( तथा) घट आदि रूप अन्य ज्ञेय पदार्थोंको जानने वाले 'यह घट आदि है', 'यह घटादि हैं। इस प्रकारके धारावाहिक ज्ञानकी परंपराके अंत्य समयमें उत्पन्न होनेवाला अंत्य ज्ञान, अपने को जानने के लिये अपनेसे भिन्न अन्य ज्ञानको जाननेकी क्रियाकी अपेक्षा नहीं रखता। इसी प्रकार पदार्थका जो ज्ञान होता है, वह अपनेको जानने के लिये अन्य ज्ञानके जाननेकी क्रियाकी अपेक्षा नहीं रखता। विवादास्पद रूपादिका ज्ञान ज्ञान रूप होता है, अतएव ज्ञानकी अन्य ज्ञान द्वारा ज्ञेयता युक्तियुक्त नहीं है । यह श्लोकका अर्थ है ॥ भावार्थ--जैनसिद्धांतके अनुसार ज्ञान अपने आपको जानता है (स्वावबोधक्षम ), और दूसरे पदार्थोंको भी जानता है ( अर्थावबोधक्षम )। कुमारिलभट्ट-ज्ञान अपने आपको नहीं जानता। अनुमान भी है-'ज्ञान स्वसंविदित नहीं है, क्योंकि ज्ञानमें क्रिया नहीं हो सकती । जैसे चतुरसे चतुर नट भी अपने कंधेपर नहीं चढ़ सकता, तथा पैनीसे पैनी तलवारकी धार मी अपने आपको नहीं काट सकती, वैसे ही ज्ञानमें भी क्रिया नहीं हो सकती' (ज्ञानं स्वसंविदितं न भवति स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । न हि सुशिक्षितोऽपि नटबटुः स्वस्कंधमधिरोढुं क्षमः । न च सुतीक्ष्णाप्यसिधारा स्वं छेत्तुमाहितव्यापारः)। जैन-यह ठीक नहीं। जैसे दीपक अपने और दूसरेको प्रकाशित करता है, वैसे ही ज्ञान भी निज और पर पदार्थोंका प्रकाश करनेवाला है। तथा एक ही पदार्थमें १. एकस्मिन्नेव घटे 'घटोऽयम्' 'घटोऽयम्' इत्येवमुत्पद्यमानान्युत्तरोत्तरज्ञानानि धारावाहिकज्ञानानि ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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