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अन्य. यो. व्य. श्लोक १०] स्याद्वादमञ्जरी अधिगमो निःश्रेयसावाप्तिहेतुः। न ह्येकेनेव क्रियाविरहितेन ज्ञानमात्रैण मुक्तियुक्तिमती । असमग्रसामग्रीकत्वात् । विघटितकचक्ररथेन मनीषितनगरप्राप्तिवत् ।।
___ न च वाच्यं न खलु वयं क्रियां प्रतिक्षिपामः, किन्तु तत्त्वज्ञानपूर्विकाया एव तस्या मुक्तिहेतुत्वमिति ज्ञानार्थं तत्त्वज्ञानाद् निःश्रेयसाधिगम इति बम इति । न ह्यमीषां संहते अपि ज्ञानक्रिये मुक्तिप्राप्तिहेतुभूते । वितथत्वात् तज्ज्ञानक्रिययोः । न च वितथत्वमसिद्धम् । विचार्यमाणानां पोडशानामपि तत्त्वाभासत्वात् । तथाहि तैः प्रमाणस्य तावद् लक्षणमित्थं सूत्रितम्"अर्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणम्" इति । एतञ्च न विचारसहम् । यतोऽर्थोपलव्धौ हेतुत्वं यदि निमित्तत्वमात्र, तत्सर्वकारकसाधारणमिति कर्तृकर्मादेरपि प्रमाणत्वप्रसङ्गः। अथ कर्तृकर्मादिविलक्षणं हेतुशब्देन करणमेव विवक्षितं, तर्हि तज्ज्ञानमेव युक्तं, न चेन्द्रियसन्निकर्षादि । यस्मिन् हि सत्यर्थ उपलब्धो भवति, स तत्करणम् । न चेन्द्रियसन्निकर्षसामग्र्यादौ सत्यपि ज्ञानाभावेऽर्थोपलम्भः । साधकतमं हि करणम् । अव्यवहितफलं च तदिष्यते । व्यवहितफलस्यापि करणत्वे दुग्धभोजनादेरपि तथाप्रसङ्गः । तन्न ज्ञानादन्यत्र प्रमाणत्वम् । अन्यत्रोपचारात् । यदपि न्यायभूषणसूत्रकारेणोक्तम्-"सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम्" इति, तत्रापि साधनग्रहणात् कर्तृकर्मनिरासेन करणस्यैव प्रमाणत्वं सिध्यति । तथाऽप्यव्यवहितफलत्वेन साधकतमत्वं ज्ञानस्यैव इति न तत् सम्यगलक्षणम् । “स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम्" इति तु तात्त्विकं लक्षणम् ।।
अक्षपादके (नैयायिकोंके) मतमें सोलह पदार्थ माने गये हैं। कहा भी है-"प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान के तत्त्वज्ञानसे मोक्षको प्राप्ति होती है।" किन्तु इन सोलह पदार्थोंमें एक-एकका अथवा समस्त पदार्थोंका जान लेना मोक्षकी प्राप्तिमें कारण नहीं है। क्योंकि क्रियाके बिना केवल ज्ञानमात्रसे ही मुक्ति नहीं मिलती। जिस प्रकार रथके दो पहियोंके विना केवल एक पहियेसे नगरमें नहीं घूमा जा सकता, उसी तरह ज्ञान और क्रिया दोनोंके बिना केवल ज्ञान-मात्रसे मोक्ष नहीं मिलता।
शंका-हम लोग क्रियाका निषेध नहीं करते, किन्तु सोलह पदार्थोंके तत्त्वज्ञानसे होनेवाली क्रिया ही मोक्षकी प्राप्तिमें कारण है, यह बतानेके लिये हमने कहा है "तत्त्वज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति होती हैं।" समाधान-आप लोगोंके द्वारा माने हुए ज्ञान और क्रिया दोनों मिल कर भी मोक्षके कारण नहीं हो सकते, क्योंकि वे ज्ञान और क्रिया दोनों मिथ्या है। ज्ञान और क्रियाका मिथ्या होना असिद्ध नहीं है, क्योंकि विचार करनेपर ये सोलह पदार्थ तत्त्वाभास सिद्ध होते हैं। आप लोगोंने जो "अर्थोपलब्धिमें हेतुको प्रमाण" स्वीकार किया है, वह ठीक नहीं। क्योंकि यदि निमित्त मात्रको ही अर्थोपलब्धिमें हेतु कहा जाय तो कर्ता, कर्म आदि कारकोंको भी प्रमाण मानना चाहिये । कर्ता, कर्म आदि भी पदार्थोंके ज्ञानमें निमित्त कारण हैं। यदि आप कर्ता, कर्म आदि कारकोंसे विलक्षण करण कारकको ही हेतु कहें, तो इन्द्रिय और पदार्थक सम्बन्धको पदार्थक ज्ञानमें करण न कह कर केवल ज्ञानको ही पदार्थोंके करण मानना चाहिये। क्योंकि इन्द्रिय और पदार्थका सम्बन्ध होनेपर भी ज्ञानका अभाव होनेसे पदार्थोंका ज्ञान नहीं होता । जिसके होनेपर पदार्थका ज्ञान होता है, वह पदार्थके ज्ञानका करण है, परन्तु इन्द्रियसन्निकर्ष आदि सामग्रीके रहते हुए भी ज्ञानके अभावमें पदार्थीका ज्ञान नहीं होता। तथा, साधकतमको ही करण मानना चाहिये । इसी साधकतम ज्ञान रूप करणके होनेसे ही पदार्थोके जानने रूप कार्यकी उत्पत्ति होती है। यदि करणको परम्परासे फल देनेवाला माना जाय, तो दुग्ध, भोजन आदि भो पदार्थके ज्ञानमें करण हो सकते हैं। अतएव ज्ञानको छोड़ कर और कोई प्रमाण नहीं मानना चाहिये। क्योंकि ज्ञान ही पदार्थोके जाननेमें करण है, ज्ञानको छोड़कर
१. वात्स्यायनभाष्ये । २. न्यायसारे भासर्वज्ञप्रणीते १-१ । ३. प्रमाणनयतत्त्वालोकालकारे १-२।