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________________ ७८ श्रीमद्रराजचन्द्रजनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १० इत्युच्यते'' इति न्यायवार्तिकम् । वस्तुतस्त्वपरामृष्टतत्त्वातत्त्वविचारं मौखयं वितण्डा । तत्र यत्पाण्डित्यम्-अविकलं कौशलं, तेन कण्डूलं मुखं लपनं यस्य स तथा तस्मिन् । कण्डूः-खर्जूः, कण्डूरस्यास्तीति कण्डूलम् , सिध्मादित्वाद् मत्वर्थीयो लप्रत्ययः । यथा किलान्तरुत्पन्नकृमिकुलजनितां कण्डूति निरोधुमपारयन् पुरुषो व्याकुलतां कलयति, एवं तन्मुखमपि वितण्डापाण्डित्येनासंवद्धप्रलापचापलमाकलयत् कण्डूलमित्युपचर्यते ॥ एवं च स्वरसत एव स्वस्वाभिमतव्यवस्थापनाविसंस्थुलो वैतण्डिकलोकः । तत्र च तत्परमाप्तभूतपुरुपविशेपपरिकल्पितपर वञ्चनप्रचुरवचनरचनोपदेशश्चेत् सहायः समजनि, तदा स्वत एव ज्वालाकलापजटिले प्रज्वलति हुताशन इव कृतो घृताहुतिप्रक्षेप इति । तैश्च भवामिनन्दिभिर्वादिभिरेताहशोपदेशदानमपि तस्य मुनेः कारुणिकत्वकोटावारोपितम् । तथा चाहुः "दुःशिक्षितकुतकौशलेशवाचालिताननाः। शक्याः किमन्यथा जेतुं वितण्डाटोपमण्डिताः ॥१॥ गतानुगतिको लोकः कुमार्ग तत्प्रतारितः। मा गादिति छलादीनि प्राह कारुणिको मुनिः" ||२|| कारुणिकत्वं च वैराग्याद् न भिद्यते । ततो युक्तमुक्तम् अहो विरक्त इति स्तुतिकारेणोपहासवचनम् ॥ अथ मायोपदेशादिति सूचनासूत्रं वितन्यते । अक्षपादमते किल षोडशपदार्थाः । "प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासछलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानाद् निःश्रेयसाधिगमः” इति वचनात् । न चैतेषां व्यस्तानां समस्तानां वा दोषोंका खण्डन कर अपने पक्षका स्थापन न किया जा सके। न्यायवार्तिकमें कहा है-"अपने पक्षको स्वीकार कर के जो स्वपक्षको स्थापित नहीं कर सकता, उसे वैतण्डिक कहते हैं।" वास्तवमें तत्त्व-अतत्त्वका विचार न कर मौखर्यको ही वितण्डा कहा है ] रूप पाण्डित्यसे असम्बद्ध प्रलाप करनेवाले तत्त्व और अतत्त्वके विचारसे वहिर्मख, छल जाति और निग्रहस्थानका उपदेश देकर दूसरोंके निर्दोप हेतूओंका खण्डन करनेवाले, आपकी आज्ञासे वाह्य, ऐसे अक्षपाद ऋषि, आश्चर्य है कि वीतराग कहे जाते हैं ! यदि अपने मतको स्थापित करनेके लिए आतुर वैतण्डिक लोगोंको परम आप्त कहे जानेवाले पुरुषोंके द्वारा दूसरोंकी वंचना करनेवाले वचनोंका उपदेश दिया जाय, तो वह जलती हुई अग्निमें घीकी आहुतिका काम देता है। संसारमें आनन्द माननेवाले वादियोंने इस प्रकारका उपदेश करनेवाले मुनि भी कारुणिक बताया है ! उन लोगोंने कहा है "कुतर्कसे वाचालित वितण्डावादी छल आदिके विना नहीं जीते जा सकते ॥१॥ लोग एक दूसरेके पीछे चलनेवाले होते हैं । इसलिये कुतार्किकोंसे ठगाये जाकर लोग उनका अनुकरण न करने लग जाय, अतएव कारुणिक मुनि ने छल आदि का उपदेश किया है ।" ॥२॥ करुणा और वैराग्य अलग अलग नहीं हैं । अतएव स्तुतिकारने, 'अहो विरक्तः' ऐसा कह कर जो उपहासवचन का प्रयोग किया है, वह ठीक है। १ उद्योतकरविरचितन्यायवात्तिके १-१-१ । २ भवाभिनन्दी असारोऽप्येष संसारः सारवानिव लक्ष्यते । दधिदुग्धाम्बुताम्बूलपुण्यपण्याङ्गनादिभिः ॥ इत्यादिवचनैः संसाराभिनन्दनशीलः । ३ गौतमसूत्रे १-१-१
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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