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________________ उपोद्घात (९) जे काई खूटतुं हतुं ते उमेरीने, आलंकारिक भाषामां तैयार कयु मने 'सटीक प्रमाणनयतत्त्वालोक'ने एक आकर ग्रन्थनुं स्वरूप मापी दीधुं. वादी देवसूरि अने तेमना ग्रन्थो विषे में 'रत्नाकरावतारिका'नी प्रस्तावनामां लख्युं छे' तेथी तेनी पुनरावृत्ति जरूरी नथी. एटलं जाणवू बस थशे के वादी देवसूरि ते काळ ना गुजरातमा एक समर्थ दार्शनिक हता; जेनो जोटो जडवो दुर्लभ छे. जैन दर्शन विषे विचार करीए तो तेना आगमयुगमां (वि० पू० ५००-विक्रम ५००) तत्त्वनी विचारणा एटले तत्त्वोनी अने ज्ञानना प्रकारोनी गगतरी-विभागीकरण ए मुख्य हतुं. तत्त्व- स्वरूप केQ होवू जोईर ए विषे दार्शनिकोमा चालती चर्चाना अनुसंवानमां जैन दार्शनिकोए अनेकान्तवादनी स्थापना करी अने तेनुं समर्थन कयु ते जैन दर्शनचर्चानो बीजो युग छे (वि० ५००-८००). तेमां समन्तभद, अकलंक, हरिभद्र आदि अनेक आचार्योए अनेकांतवादनी स्थापना अने व्यवस्था माटे भगीरथ प्रयत्न कर्यों अने इतर दार्शनिकोमा जैन दर्शनने स्याद्वादी दर्शन के अनेकान्तवादी दर्शनरूपे प्रतिष्ठा अपावी. तत्त्वने पामवानो के तेना निरूपणनी एक नहि पण अनेक दृष्टि होई शके छे अने तेथी मात्र एक ज दृष्टिए करेल निरूपण अधूरूं अने ऐकान्तिक बनी जाय छे. ते विचारवानो प्रयत्न अनेकांतमा छे - आवी स्थापना अनेकांतवादनी छे. १. आ प्रन्य, ला० द. भारतीय संस्कृति-विद्यामंदिर, अमदावाद तरफभी त्रण भागमा अनुवाद साथे प्रकाशित थयो छे.
SR No.009649
Book TitlePramana Naya Tattvaloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHimanshuvijay, Purnanadvijay
PublisherAmblipol Jain Upashray
Publication Year
Total Pages177
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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