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प्रथमः सर्गः श्लोक से गुप्तचर किरात की सूक्ष्म दृष्टि और बुद्धिमत्ता का पता चलता है । १४ के श्लोक में बतलाया जा चुका है कि दुर्योधन अपने स्वरूप को ऐसा बनाये रखता है कि आकृति से कोई यह नहीं समझ सकता है कि वह सशङ्क है। वह अपने हृदयस्थ भावों को इस प्रकार छिपाये रखता है कि कोई उन्हें भाँप नहीं सकता है। किन्तु दुर्योधन की सावधानी और चालाकी गुतचर के सामने असफल हो गई । गुप्तचर ने यह बात भाँप ली कि युधिष्ठिर का नाम सुनने पर दुर्योधन भावी पराजय की आशङ्का से अपने सिर को नीचे झुका लेता है। (४) महाकवि ने इस तथ्य को प्रस्तुत किया है कि हृदयस्थ भय इत्यादि उत्कट भावों को दबाया नहीं जा सकता है। हृदय की बातों को मुख बतला देता है। हृदय में स्थित भावों के लिए मुख की आकृति दर्पण का कार्य करती है। दुर्याधन के मुख की आकृति को देखकर गुप्तचर ने उसके हृदयस्थ भावों को भलीभाँति समझ लिया । (५) गुप्तचर इस तथ्य की ओर संकेत कर रहा है कि सिंहासनारुद्ध और सर्वशक्तिसम्पन्न होने पर भी दुर्योधन को पराजित किया जा सकता है। उसका हृदयस्थ भय ही उसकी निर्बलता और आपकी सबलता को बतला रहा है। (६) अर्जुन युधिष्ठिर का अनुज है। अत: अर्जुन के पराक्रम की प्रशंसा को सुनकर युधिष्ठिर को बड़ी प्रसन्नता हुई होगी। (७) राष्ट्र की रक्षा का भार गुप्तचरों पर ही होता है। जिस राष्ट्र के गुप्तचर किरात जैसे बुद्धिमान् और सावधान होंगे उस राष्ट्र का कोई भी बाल बाँका नहीं कर सकता है। (८) श्लेषानुप्राणित पूर्णोपमा अलंकार । दुर्योधन उपमेय, उरग (सर्प) उपमान, इव उपमा-वाचक पद तथा अधोमुख होना, दुःखी होना इत्यादि साधारण धर्म हैं।
घण्टापथ-कथेति । कथाप्रसंगेन गोष्ठीवचनेन जनैः तत्रस्यरित्यर्थः । अन्यत्र कथाप्रसङ्गेन विषवद्येन । 'कथाप्रसङ्गो वार्तायां विषवैद्येऽपि वाच्यवत्" इति विश्वः । एकवचनस्यातन्त्रत्वाज्जनविशेषणम् उदाहृतादुच्चारितात्तवाभिधानान्नामधेयात्स्मारकाद्धेतोः। 'हतो' इति पञ्चमी। 'आख्याहे अभिधानं च नामधेयं च नाम च' इत्यमरः । अन्यत्र तवाभिधानात् । 'नामैकदेशग्रहणे नाममात्रग्रहणम्' इति न्यायात् । तरच वश्च तवी ताय॑वासुकी तयोरभि