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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी ___७३ मैंने कहा : 'महात्मा! परोपकार करना अपना कर्तव्य है, लोगों को पापों से बचाना एवं धर्मसम्मुख बनाना अपना फर्ज है, मैं मानता हूँ। परन्तु मैं यह भी सोचता हूँ कि क्या यह सब करते हुए अपना स्वयं का आत्मभाव प्रशमरसनिमग्न बना रहता है? स्वभावदशा बनी रहती है? कहीं कीर्ति, प्रतिष्ठा और मानसम्मान की अशुभ-अपवित्र वृत्तियाँ व्यापक तो नहीं हो रही है? कोई ईर्ष्या और स्पर्धा की वासना तो नहीं सताती है? मेरे प्रिय मुनिवर! धर्मप्रभावना की सतत प्रवृत्तियों में सतत जन-संपर्क बना रहता है, इससे अपना जीवन सामाजिक बन गया है। अपनी साधुता-साधकता की मस्ती खो गई है... ऐसा नहीं लगता है? सुबह से शाम तक किसी न किसी व्यक्ति का संपर्क बना रहता है... ऐसी स्थिति में कब नये-नये ग्रन्थों का अध्ययन करें? कब नयानया तत्त्वचिंतन करें? कब विद्वानों के साथ तत्त्वपरामर्श करें? और कब तत्त्वचिंतन को ग्रन्थस्थ करें? ___ मैं तो यह मानता हूँ कि साधक आत्मा को ज्यादा से ज्यादा समय एकान्त में व्यतीत करना चाहिए। अति आवश्यक हो, उतना ही जनसंपर्क रखना चाहिए। साधक की साधना निरन्तर सामाजिक संपर्क से नष्ट हो जाती है! हाँ, सामाजिक प्रतिष्ठा बन जाती है! लोकप्रशंसा मिल जाती है! लेकिन वह भी पुण्यकर्म का उदय हो तो! एकान्त जगह का, एकान्त समय का अच्छा उपयोग कर लें। ऐसे रमणीय और पवित्र अपने तीर्थ स्थान हैं... जंगलों में हैं... पहाड़ों पर हैं... निर्जन प्रदेशों में हैं... वहाँ एकान्त मिल सकता है | महीनों तक ऐसे स्थानों में बैठकर ज्ञानोपासना की जाए तो कितने धर्मग्रन्थों का - अध्यात्मग्रन्थों का अध्ययन, चिंतन और लेखन हो जाए। ऐसे स्थानों में ध्यानोपासना की जाए तो आत्मा में कैसा आनंद प्रकट हो जाए! कैसे अगोचर तत्त्वों का प्रकाश प्राप्त हो जाए! कैसे दिव्य अनुभवों का संवेदन हो जाए!! हाँ, जिसे ज्ञानोपासना और ध्यानोपासना में रुचि नहीं है, उस व्यक्ति को एकान्त में नहीं रहना चाहिए... उसके लिए तो समूह-जीवन ही श्रेयस्कर है। परन्तु ज्ञानोपासना और ध्यानोपासना के बिना साधु जीवन का अर्थ ही क्या? ज्ञान-ध्यान के बिना क्या मोक्षमार्ग की आराधना हो सकती है? For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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