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यही है जिंदगी वे सभी जीव क्षमापात्र हैं, जो क्षमायाचना करते हैं। क्षमायाचना करनेवालों को यदि हम क्षमादान नहीं देते हैं, तो हम अपराधी बनते हैं! ___ भले, हम अपराधी को सजा न दें, अथवा न दे सकें, परन्तु 'अपराधी को सजा होनी चाहिए, ऐसी भावना भी पापभावना है। 'सजा होनी चाहिए' का अर्थ होता है 'दु:ख मिलना चाहिए। किसी भी जीवात्मा को - पापी जीवात्मा को भी - दुःख मिलने की इच्छा करना उचित है क्या? __मित्र ने कहा : यदि उसको (अपराधी को) दुःखी नहीं होने दिया तो तू दुःखी होगा। वह तुझे दुःखी करेगा।
सही बात थी मित्र की! स्वकेन्द्रित मनुष्य ऐसा ही सोच सकता है। स्वकेन्द्रित मनुष्य अपने ही सुख-दुःख का विचार प्रथम करता है। दूसरों के सुख-दुःख के विचार गौण होते हैं।
मैं कैसे मित्र के विचारों को स्वीकार करूँ? मैं कैसे अपराधी की क्षमाप्रार्थना को ठुकराऊँ? मैं कैसे अपने सुख-दुःख के विचारों को प्रधानता दूँ? क्या मैं मेरे ही सुखों के लिये जी सकता हूँ? क्या मैं अपने ही दुःखों का विचार करूँ? नहीं, भले मेरे सुख चले जायें... भले मैं दुःखों के समुद्र में डूब जाऊँ... मैं दूसरों के दुःख दूर करने का प्रयत्न नहीं छोड़ सकता। अपराधी को भी दुःखी होता हुआ नहीं देख सकता। ___मैं स्वयं क्या अपराधी नहीं हूँ? अनंत जन्मों से अपराधी नहीं हूँ? क्या मैं सजा चाहता हूँ? क्या मैं परमात्मा से क्षमा नहीं चाहता? मैं अपने अपराधों की क्षमा चाहता हूँ। इसीलिए मैं दूसरों के अपराधों को क्षमा देना चाहूँगा | मैं अपने अपराधों की सजा को स्वीकार करूँगा, परन्तु मेरे अपराधियों को तो क्षमा देना ही चाहूँगा।
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