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यही है जिंदगी
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३४. नये वर्ष की प्यास ।
लोगों ने दीपावली पर्व काफी हर्षोल्लास से मनाया और नूतनवर्ष का पर्व भी आनंद से मनाया... क्या पता किस-किस ने इस पर्व में महावीर-गौतम की स्मृति की होगी...| जब नूतनवर्ष के प्रभात में लोग हर्ष से झूम रहे थे... मेरी आँखें आँसू भर कर बैठी थी... हृदय व्याकुलता का संग कर बैठा था...। अपने प्रियतम परमात्मा के निर्वाण से अत्यन्त व्याकुल गौतम को मैं मौन रहकर देख रहा था... उनकी हृदय-व्यथा मेरे हृदय को व्यथित कर रही थी, उनकी अश्रुधारा मेरी हृदयभूमि पर बह रही थी। अत्यन्त आर्द्र... अत्यन्त वेदनापूर्ण स्वरों में... नीलगगन के उस पार... जहाँ महावीर चले गये थे... उस सिद्धशिला की ओर देखते... वे पुकार रहे थे।
वीर वहेला आवो ने... 'गौतम' कही बोलावो ने...
दरिशन वहेलुं दीजिए हो जी... मेरा तो कंठ ही अवरुद्ध हो गया था... मैं भी वीर को पुकारना चाहता था... एक शब्द भी नहीं निकला मुँह से...| गौतम जमीन पर गिर पड़े थे... उनके आँसूओं से जमीन गीली हो गई थी... क्या करना... मुझे कुछ सूझता ही नहीं था... हजारों केवलज्ञानी शिष्यों के गुरु को मैं अज्ञानी क्या आश्वासन दूँ? चार-चार ज्ञान के धनी को मेरे तुच्छ शब्द क्या दिलासा दे सकते हैं? सिवाय रुदन के... मेरे पास कुछ नहीं था। गौतम का विलाप तीव्र हो रहा था...
जो नहीं आवो तो थाशे सेवकना बेहाल रे... प्रभु, तु निःसनेही हूँ ससनेही अजाण रे...
वीर वहेला आवो ने... "हे वीर, यदि आप शीघ्र नहीं आओगे तो आपका सेवक बेहाल हो जायेगा... प्रभो, आप स्नेहरहित हैं, परन्तु मैं तो स्नेहभरा हूँ... अज्ञानी हूँ...
वीर! आप शीघ्र आइये...।'
नये वर्ष का प्रभात कितना विषादपूर्ण हो गया था... गौतम के करुण विलाप ने जंगल के पशुओं को, पक्षियों को भी रुला दिया था... वृक्ष के पर्णों
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