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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७ यही है जिंदगी मेरा अपना है। मुझे ही सोचना होगा और मार्ग ढूँढना होगा। बाह्य वातावरण में मद और मदन के जहरीले जंतु व्याप्त हैं, इसी वातावरण में जीना है! बाह्य-अवकाश में अनंत विकार व्याप्त हैं और तृष्णा के सूअर गली-गली में भटक रहे हैं... इस वातावरण में जीवन व्यतीत करना है और वातावरण के प्रभाव से मुक्त रहना है! कैसे मुक्त रहा जाय? कितनी आत्मशक्ति जाग्रत हो तब मुक्त रहा जा सके? कहाँ से लाऊँ इतनी आत्मशक्ति? __ अभी-अभी एक जिज्ञासु भाई ने पूछा था : 'माषतुष मुनि के जीवन में ऐसी कौन-सी साधना होगी कि दो शब्द भी याद नहीं कर सके और बारह वर्ष बीतने पर उनको कैवल्य की प्राप्ति हो गई?' । मैंने उनको यह बात कही थी : 'शास्त्र के शब्द उनको याद नहीं रहते थे, परन्तु शास्त्र के भाव आत्मसात् होते जा रहे थे। वे क्रमशः मद-मदन पर विजय पाते गये, मन-वचन-काया के विकारों से मुक्त होते गये और परपुद्गल की आशाओं से निवृत्त होते गये। चरित्रलेखक तो मनुष्य के बाह्य क्रियाकलापों को स्पर्श करते हैं, वे आन्तर जगत में कैसे प्रवेश करें? मोक्षमार्ग की साधना जितनी बाह्य नहीं है, उतनी आन्तरिक है। मोक्षसुख का आस्वाद आन्तरिक साधना से ही संभव है। बाह्य क्रिया-कलाप आन्तरिक साधना में पहुँचने के सोपान मात्र हैं। सोपान पर ही खड़े रह जाने से मंज़िल पर नहीं पहुँचा जा सकता है। कभी-कभी परमात्मा से भी कह देता हूँ : 'हे करुणासिन्धु! बस, मुझ पर एक करुणा कर दे । जितना जानता हूँ, उतना मैं कर सकूँ! जानने पर भी नहीं कर सकता हूँ, इस बात की मुझे अपार वेदना है। मेरी इस वेदना को मिटा दे। मेरे परमात्मन्! मेरी एक लालसा है कि मैं इस जीवन में मोक्षसुख का क्षणिक आस्वाद कर लूँ... फिर भले मौत आ जाये! For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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