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यही है जिंदगी अनित्य, अशरण, एकत्व आदि बारह भावनाओं से आत्मा भावित होनी चाहिए | भावित बनेगी, तभी बाह्य निमित्तों के प्रभाव से मुक्त रह सकेगी। ___ कमठ और धरणेन्द्र के प्रति समभाव रखने वाले परमात्मा पार्श्वनाथ की प्रतिदिन स्तुति करता हूँ कि 'प्रभो, मुझे भी ऐसे समभाव की प्राप्ति कराइये... दुःख देनेवालों के प्रति द्वेष न हो, सुख देनेवालों के प्रति राग न हो! कोई प्रिय न लगे, कोई अप्रिय न लगे! कुछ इष्ट न लगे, कुछ अनिष्ट न लगे! प्रिय का संयोग ऐसा न हो कि उसके वियोग में मैं उद्विग्न हो जाऊँ ।
प्रिय के साथ हृदय का बंधन न हो, अप्रिय के साथ भी हृदय जुड़ा हुआ न हो! प्रिय-अप्रिय से हृदय अलिप्त हो... तब आत्मानन्द की अनुभूति हो सकती है, तब आन्तर प्रसन्नता की अनुभूति हो सकती है। यही तो साधक जीवन का सुख है। यही तो साधक जीवन की प्रगति है। द्वन्द्वों से भरे हुए संसार में हृदय को निर्द्वन्द्व बनाये रखना शुद्ध आत्मज्ञान से ही सम्भव हो सकता है। ज्ञानदृष्टि जीवन के तमाम क्षेत्रों में खुली रहनी चाहिए | बारह भावनाओं के माध्यम से चिन्तन-मनन और अवलोकन होना चाहिए।
जानता हूँ, फिर भी बार-बार भूल हो ही जाती है। प्रिय-अप्रिय की कल्पनाएँ उभर आती हैं और हर्ष-उद्वेग के द्वन्द्व से हृदय कलुषित बन जाता है। हालाँकि इस दिशा में मैं सजग बन गया हूँ... इसलिए आशा बंधती है कि कभी न कभी सफलता मिलेगी। परमात्मा पार्श्वनाथ भगवंत का इस दृष्टि से किया हुआ ध्यान सहायक बन सकता है। परमात्मा की 'तुल्यवृत्ति' का दान कभी तो मुझे मिलेगा! प्रिय-अप्रिय की कल्पनाएँ नामशेष बनेंगी। आत्मानन्द की अनुभूति प्राप्त होगी। ___ परमात्मकृपा से... परमात्मा के अचिन्त्य अनुग्रह से ही यह सम्भव हो सकता है, यह मेरा विश्वास है। परमात्मकृपा का पात्र बनना ही आवश्यक है। इसी जीवन में पात्रता सिद्ध हो जाए तो काम बन जाए। फिर दूसरा चाहिए भी क्या?
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