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यही है जिंदगी
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२. पसंद-नापसंद में से मुक्ति चाहि
अप्रिय का संयोग! प्रिय का वियोग!
अभी अप्रिय का संयोग हुआ भी न हो, प्रिय का वियोग हुआ भी न हो, केवल सम्भावना दिखती हो - कल्पना पैदा हो गई हो, मानसिक दुःख शुरू हो जाता है। उसके साथ रहना पड़ेगा? उसके साथ जीना पड़ेगा? वह तो मुझे अत्यंत अप्रिय है... जरा भी पसन्द नहीं...' बस, मानसिक तनाव शुरू हो गया! ___ प्रिय व्यक्ति के वियोग की संभावना ने भी मुझे कितना परेशान किया है! मैं कितना अस्वस्थ और अशांत बन गया था? उस समय मुझे खयाल आया था कि मेरी बुद्धि, मेरा ज्ञान... कैसा था, कितना था! प्रियजन के वियोग की सम्भावना ने मुझे... मेरे ज्ञान को हिला दिया था... अल्प समय के लिये तो मुझे लगा था कि 'मेरा सारा शास्त्रज्ञान व्यर्थ है।'
किसी एक भी जड़-चेतन पदार्थ की आसक्ति... अनुराग जीवात्मा को अशांति के उदधि में डुबा सकता है। प्रिय-अप्रिय की कल्पनाओं का समूल उच्छेदन करना अनिवार्य है, अन्यथा सारा ज्ञान, तप-त्याग वगैरह व्यर्थ चला जायेगा। एक महान तपस्वी और संसारत्यागी साधुपुरुष को मैंने अशान्त इसलिये पाया, क्योंकि उनको प्रियजन के वियोग की सम्भावना प्रतीत होती थी! ३०-३० साल की तपश्चर्या और ४०-४० वर्ष का त्यागमय जीवन... फिर भी प्रिय-अप्रिय की कल्पनाएँ सलामत थी! कुछ तो वे प्रिय का संयोग चाहते थे! कुछ अप्रिय का वियोग चाहते थे! प्रिय के वियोग की संभावना से व्यथित थे, अप्रिय के संयोग से अशान्त थे!
मैंने मेरे जीवन में भी ऐसा अनुभव किया... मैं चौंक पड़ा। प्रिय-अप्रिय की कल्पनाएँ मेरे हृदय में इतनी प्रगाढ़ हो गई थी कि प्रिय के वियोग में और अप्रिय के संयोग में जीवन जीना मुझे मुश्किल सा लगा... मैं सावधान तो हो ही गया। संभल गया। प्रिय-अप्रिय की कल्पनाओं से मन को मुक्त करने का प्रयत्न शुरू किया।
साधक जीवन में पुनः पुनः अनित्यादि भावनाओं का चिन्तन करने के लिए तीर्थंकर भगवंतों ने क्यों कहा है, इस बात का रहस्य मेरी समझ में आया।
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