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यही है जिंदगी
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२९. सेवा भी सद्भाव पूर्ण!
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कल रात्रि के समय महामुनि नंदीषेण याद आ गये। धर्मग्रन्थ में कुछ वर्ष पूर्व पढ़ा था उनको। उस समय ही उनके प्रति हार्दिक आदर जाग्रत हो गया था? क्यों हो गया था ? पता नहीं! ऐसी कोई विशिष्ट प्रतिभा नहीं थी उनमें, नहीं थी ऐसी कोई अद्भुत विद्वत्ता । न थे वे प्रवचनकार, नहीं थे कवि या लब्धिसंपन्न चमत्कारिक पुरुष । मैंने उस ग्रन्थ में पढ़ा था कि वे एक विनम्र साधुसेवा करनेवाले महात्मा थे। केवल बाह्य सेवा नहीं, उनके हृदय में रुग्णग्लान साधुपुरुषों के प्रति प्रेम था, अविचल प्रीति थी ।
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मेरे हृदय में नन्दीषेण के प्रति प्रीति हो गई, इसका कारण तो दूसरा ही है। साधुप्रीति और ग्लानसेवा जैसे गुण तो आजकल भी मैंने कई साधुपुरुषों में देखे हैं। परन्तु अप्रीति और अभाव प्रदर्शित करनेवालों के प्रति प्रीति और सद्भाव रखना असाधारण गुण है । द्वेष - गुस्सा करनेवालों और क्षण-क्षण झुंझलानेवालों के प्रति द्वेष न करना, नाराज नहीं होना - यह असामान्य बात है । नन्दीषेण मुनि में यही असाधारण बात थी ।
'साधु बीमार हो गया है, मल-मूत्र से सारा शरीर विलिप्त हो गया है, अकेला... असहाय है ... चिल्लाता है ... दर्द से कराहता है, जंगल में पड़ा है'
किसी ने आकर नन्दीषेण को समाचार दिया...। नन्दीषेण तपश्चर्या का पारणा करने बैठे ही थे... हाथ धोकर खड़े हो गये...। समाचार देनेवाले ने भी कैसी कर्कश भाषा में समाचार दिया था ! 'उधर तो बेचारा साधु घोर वेदना से कराहता पड़ा है... और तू यहाँ पेट भरने बैठ गया है ? बड़ा आ गया सेवा करनेवाला....' परन्तु नन्दीषेण के मुँह पर कोई रोष नहीं... कोई नाराजगी नहीं...। नन्दीषेण के मन में भी कोई दुर्भाव नहीं जगा । पारणा नहीं किया और पात्र में निर्दोष प्रासुक जल लेकर चल दिये।
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जब वे उस बीमार साधु के पास पहुँचे, बीमार ने नन्दीषेण को कठोर.... कर्कश और असभ्य शब्द सुनाने शुरू कर दिये । परन्तु नदीषेण के मन में फिर भी दुर्भाव नहीं आया । वे शांति से ... प्रसन्नचित्त से बीमार साधु का शरीर पानी से धोने लगे। मल-मूत्र से सना हुआ शरीर उन्होंने साफ किया। मुँह पर अप्रीति की कोई रेखा नहीं । शब्दों में कोई कर्कशता नहीं। बहुत स्नेहपूर्ण शब्दों से भरा व्यवहार !