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यही है जिंदगी रागी हो या द्वेषी... मुझे उनसे कोई मतलब नहीं, मुझे उनके प्रति कोई द्वेष नहीं, वैर नहीं। मेरा भीतरी सम्बन्ध अब केवल परमात्मा से रहेगा। अब मेरा सारा प्रयत्न परमात्मा की प्रीति प्राप्त करने हेतु रहेगा। अब मुझे दृढ़ विश्वास हो गया है : परमात्मा से प्रीति हो सकती है और परमात्मा से आन्तर जगत में सम्बन्ध स्थापित हो सकता है। अब मैंने इस आन्तर जगत का कुछ आभास पा लिया है। उस आन्तर जगत में ही परम आनंद मिलता है, परम सुख का आस्वाद होता है।
यह बात समझाने से कोई नहीं समझ सकता । दीर्घकालीन अनुभवों में से गुजरने के बाद यह बात स्वयं स्फुरित होती है। दुनिया की असंख्य गलियों में भटक-भटक कर... जब तृप्त हो जाए, 'दुनिया से सुख... शांति... प्रसन्नता नहीं मिल सकती है... कभी भी नहीं मिल सकती है...' यह बात अनुभव से ज्ञात हो जाए, तब सम्भव है कि परमात्मा के प्रति दृष्टि खुल जाय।
राग-द्वेष की प्रचुरता भयानक है। इस प्राचुर्य में परमात्म-माधुर्य का अनुभवअसम्भव! मोह के प्राबल्य में परमात्मा का माँगल्य असम्भव! राग-द्वेष और मोह उपशान्त हो, तभी परमात्म सृष्टि के प्रति दृष्टि खुलती है। परमात्मा से प्रीति बाँधने का विचार तभी आता है। परमात्मा के अलावा किसी से भी प्रीति नहीं बाँधने का संकल्प तभी होता है। महान योगी श्री आनंदघनजी के शब्द याद आते हैं :
___'ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे, और न चाहूँ कंत...' 'मेरा प्रियतम है परमात्मा ऋषभदेव, उनके सिवाय और किसी को भी मेरा प्रियतम बनाना नहीं चाहता हूँ।'
मैं भी यही संकल्प करता हूँ कि 'अब मेरे प्रियतम परमात्मा ही हैं, उनके सिवा मैं किसी को भी मेरा प्रियतम बनाना नहीं चाहूँगा... अब कोई रागी-द्वेषी और मोहान्ध मेरे प्रेम का पात्र नहीं रहेगा।
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