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यही है जिंदगी
४९ हूँ... समग्रता से चाहता हूँ कि मुझे इन द्वंद्वों से मुक्त होना है। कभी-कभी अंतरात्मा आर्तनाद करती है - 'मुझे इस दुनिया में दूसरा कुछ नहीं चाहिए, मुझे तो निर्द्वद्व बनना है। प्रशमरस में निमग्न बनना है। किसी सुख की चाह नहीं, किसी दुःख का दाह नही!'
दुनिया में अरबों मनुष्यों को जैसा जीवन नहीं मिला है, वैसा उत्तम संयम जीवन, श्रमण जीवन मुझे मिल गया है। इस जीवन में निर्द्वद्व बनने की साधना शक्य है। जब दुनियादारी का कोई बंधन मुझे नहीं है, तो फिर मैं सामने चलकर राग-द्वेष के बंधन क्यों मोल लूँ? सुख-दुःखों की याद-फरियाद में क्यों उलझ जाऊँ? मैंने स्वेच्छा से सुखों का त्याग किया है, स्वेच्छा से दुःखों को स्वीकार किया है... फिर सुखों की याद क्यों? दुःखों की फरियाद क्यों?
आन्तर-साधना का कितना मुक्त जीवन मिल गया है मुझे! परंतु दुःख-सुखों की याद-फरियाद से मुक्त जीवन को बंधनग्रस्त कर लिया है मैंने | कभी-कभी बंधन मीठे लगते हैं... मधुर लगते हैं! परंतु बंधन तो बंधन ही रहेंगे | बंधन में प्रशम का आनंद कहाँ? बंधन में प्रसन्नता की अनुभूति कहाँ? बाह्य सुख के साधन उपलब्ध होने पर और बाह्य दुःख नहीं होने पर भी सुख-दुःख के विचार चित्त को अशांत ही बनाए रखते हैं।
हे परमात्मन्! मुझे सुखों की याद से मुक्त कर दे। दुःखों की फरियाद से मुक्त कर दे। बस, मेरे ऊपर इतनी कृपा कर दे, इतनी कृपा कर दी तो मुझे सब कुछ मिल गया। यदि मुझे ऐसी मुक्ति नहीं मिली तो मेरी अपात्रता पर आँसू बहाऊँगा...!
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