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यही है जिंदगी
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२१. सिद्धशिला पर जाना है ।
प्रतिदिन बोलता हूँ: 'अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपन्नत्तं धम्म सरणं पवज्जामि...' परंतु कल रात जब निद्रा नहीं आ रही थी, सहसा एक विचार ने मुझे हिला दिया : 'क्या मैंने अरिहंतों की शरणागति स्वीकार की है? क्या मैंने सिद्धों की, साधकों की और धर्म की शरणागति स्वीकार की है? मैं कितने वर्षों से शरणागति का सूत्र बोल रहा हूँ? शरणागति के परिणाम स्वरूप जो समर्पण का दिव्य भाव जाग्रत होना चाहिए था, अभी तक जाग्रत हुआ क्या? क्यों नहीं?'
बहुत देरी से सोया था। चाहता था कि निद्रा आ जाय, परंतु इस वैचारिक आक्रमण ने निद्रा को भगा दिया! 'शरण' तत्त्व पर मंथन शुरू हो गया । शरण की पूर्वभूमिका पाई श्रद्धा में | श्रद्धा ही शरणागति को स्वीकार करवाती है। श्रद्धा में शरणभाव स्वतः जाग्रत होता है। शरणभाव आगे बढ़कर समर्पण में परिणत हो जाता है! इस वास्तविकता से मैं परिचित हूँ, फिर भी परिणत नहीं हो पाया हूँ!
जिन-जिन परम तत्त्वों को शरणागति स्वीकारने का 'कर्तव्य' अदा करता हूँ, उन-उन परम तत्त्वों का श्रद्धापूर्ण भावों से स्मरण करता हूँ क्या? 'अरिहंत' का स्मरण हो आता है या करना पड़ता है? लगता है कि स्मरण करना पड़ता है। अरे, स्मरण करने - ध्यान करने बैठता हूँ तब मन उस स्मरण में कहाँ आनंद पाता है? चला जाता है दूसरे पदार्थों के पास... जहाँ उसको आनंद आता है। पाँच इन्द्रियों के प्रिय विषयों में दौड़ जाता है। इष्ट-अनिष्ट का विचार करने लग जाता है। समझ में नहीं आता कि श्रद्धा का दीपक हृदय में जल रहा है या नहीं! जब श्रद्धा ही न हो तो फिर शरणागति का भाव तो जाग्रत ही कैसे होगा? 'अरिहंते सरणं पवज्जामि' क्या सिर्फ रात्रि के लिए ही है? सुप्तावस्था ही अरिहंत की शरण में? जाग्रत अवस्था में अरिहंत की शरणागति आवश्यक नहीं? __ज्यों-ज्यों सोचता चला, हृदय में उत्पात हो गया। निद्रा तो जा चुकी थी, मैं उठ खड़ा हुआ । वातायन के पास जा कर खड़ा हुआ। नीरव शांति थी, अशोक-वृक्ष पर बैठे हुए पक्षियों के पंखों का कंपन सुनाई दे रहा था। बहुत ऊँचे आकाश में घनघोर बादल दौड़ रहे थे। क्या पता उनको कहाँ बरसना होगा...?
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