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यही है जिंदगी साथ मैत्री नहीं हो सकती है। एकेन्द्रिय, द्विन्द्रिय... आदि जीवों की बात छोड़ दें, मनुष्यों के साथ भी संसार में मैत्री करना और निभाना असंभव-सा लगता है। श्रमण जीवन में, केवल मनुष्य ही नहीं चार गति के और चौरासी लाख योनि के सर्व जीवों के साथ मैत्री स्थापित हो सकती है और निभाई जा सकती है।
परम उपकारी सर्वज्ञ परमात्मा ने, सर्वजीवमैत्री की महत्ता अपने दिल और दिमागों में बनी रहे, इसलिए प्रतिदिन चिंतन करने का सरल सूत्र दिया :
खामेमि सव्व जीवे, सव्वे जीवा खमंत मे,
मित्ति मे सव्व भूएसु वेरं मज्झं न केणई।। 'हे परमात्मन! सदैव मेरा मन निर्वैर बना रहे। सभी जीवों के मन निर्वैर बने रहें। सबके हृदय मैत्री से, स्नेह से भरपूर बने रहें। सब जीव परस्पर का हित ही सोचें और हित करने वाले ही बनें।' ___ आज मेरा निर्वैर मन कितना प्रसन्न है! कितना प्रशांत है! आज मैंने दिव्य सुख का अनुभव किया! क्षमा का आदान-प्रदान मोक्ष-सुख का आस्वाद करा सकता है। जयतु क्षमाधर्मः |
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