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यही है जिंदगी
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१७. अविनाशी के अनुरागी होना ।
अस्थिर को स्थिर माना, विनाशी को अविनाशी माना, क्षणिक को शाश्वत माना... असंख्य जन्मों से मेरी यह मान्यता चली आ रही है। इस वर्तमान जन्म में भी इसी मान्यता को लेकर जीवन जी रहा हूँ... ज्ञान हो गया है मुझे कि क्या अस्थिर है और क्या स्थिर है? क्या विनाशी है और क्या अविनाशी है? क्या क्षणिक है और क्या शाश्वत है? शास्त्रों में से मुझे जानकारी मिली है। महापुरुषों से मुझे ज्ञान मिला है। परन्तु क्या पता... मेरा हृदय क्यों अस्थिर, विनाशी और क्षणिक सुखों का अनुरागी बन रहा है? क्यों स्थिर, शाश्वत और अविनाशी आत्मसुख के प्रति अभिमुख नहीं होता?
अस्थिर यौवन के अनुराग ने मुझे बेचैन किया है। विनाशी वैभव ने मुझे विषादग्रस्त किया है। क्षणिक स्नेह-संवेदनों ने मुझे अत्यंत व्यथित किया है... जानता हूँ मैं, फिर भी मैं नहीं समझता हूँ कि जन्म-जन्म के इस अनुराग को कैसे मिटाऊँ?
आन्तर निरीक्षण में से बस, व्यथा ही व्यथा प्रगट होती है। इस व्यथा की कथा किसको सुनाऊँ? सुनाने से भी क्या? सुनने वाला क्या करेगा? आश्वासन के दो शब्द कहेगा... उपदेश के पाँच-दस वचन सुना देगा... परन्तु इससे मेरी व्यथा मिट नहीं सकती। मैं खोजता हूँ ऐसे किसी योगी पुरुष को! जो स्थिर, शाश्वत और अविनाशी परम तत्त्व के अनुरागी हों... वास्तविक अनुरागी हों। जिनके दर्शन से, जिनके सत्संग से मैं भी स्थिर, शाश्वत और अविनाशी तत्त्व का अनुरागी बन जाऊँ! ऐसे महापुरुष की छाया बनकर जीवन कृतार्थ कर दूँ। भले वे महापुरुष न बोलें मेरे साथ, उनका मौन भी मेरे लिए प्रेरणास्रोत बन जायेगा। उनका एक इशारा ही मेरे लिए पथप्रदीप बन जायेगा। परन्तु ऐसे महापुरुष कहाँ मिलेंगे? कब मिलेंगे? पता नहीं! कहते हैं कि योगीपुरुषों के दर्शन भी पुण्यकर्म के उदय से मिलते हैं। ऐसे पुण्यकर्म का उदय कब होगा? नहीं जानता हूँ!
अस्थिर, विनाशी और क्षणिक द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव में जीना पड़ता है, यह मैं जानता हूँ। परन्तु उनसे अनुराग होना, सब दुःखों की जड़ है - यह जानते हुए भी मैं अनुरागी बन जाता हूँ... यह मेरी विवशता है। जब-जब मेरा मन अशान्त हुआ... मेरा हृदय विषादपूर्ण हो गया, बेचैनी ने मुझे घेर लिया...
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