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यही है जिंदगी क्षुब्ध कर ही देती है। परंतु हाँ, अभी मेरी क्षुब्धता उस आसक्ति के कारण नहीं है, अभी तो बहिरात्मदशा की विवशता के कारण क्षुब्धता है। अंतरात्मदशा टिकती नहीं है - इस कारण से क्षुब्धता है | सदैव अंतरात्मामय कैसे बना रहूँ? सर्वकाल अनासक्त योगी कैसे बना रहूँ? सर्वदा तृप्त कैसे बना रहूँ? यदि इस साधना में सफल बन जाऊँ तो कितनी परम शांति पा लूँ! परम शांति ही तो मेरा अंतिम लक्ष्य है। इसी लक्ष्य से तो मैंने मोक्षमार्ग पर चलना शुरू किया है। वर्षों से चल रहा हूँ... चलता ही जा रहा हूँ...। परंतु...
'अतृप्ति की अकुलाहट अब सहन नहीं होती है। अतृप्ति की घबराहट अब नहीं चाहिए। अतृप्ति की विवशता अब मिटानी ही है।' __कब तक यह विचारधारा बहती रही... पता नहीं! चिंतन की मधुरता रह गई! ऐसा अकेलापन मिलता ही रहे तो कितना मजा आ जाय! तत्त्वचिंतन का अमृतपान ऐसे एकांत में, अकेले-अकेले करने में ही मजा आता है। तत्त्वचिंतन करने में भले ही मन अतृप्त रहा करे! ऐसी अतृप्ति में ही तो परम तृप्ति के बीज पड़े हुए हैं!
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