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यही है जिंदगी
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७. स्वयं को जगाने का पर्व ।
अहंकार ने मुझे क्षमा माँगने से रोका है। तिरस्कार ने मुझे क्षमा देने से रोका है। मैं नहीं समझ पाता हूँ कि मेरी कई वर्षों की धर्म-आराधना से मेरा अहंकार क्यों अदृश्य नहीं हुआ? तिरस्कार तिरोहित क्यों नहीं हुआ? आज जब मैं अपने आपको देखता हूँ - मेरा रूप मुझे अच्छा नहीं लगता है। ___ अपराध किए हैं, अपराधी हूँ... फिर भी मैं क्षमा नहीं माँग सकता। मुझे कोई रोकता है...। हाँ, भीतर से कोई धीमी-धीमी आवाज में मुझसे कह रहा है जरूर - 'तेरे अपराधों की तू क्षमा माँग ले...।' परंतु मैं उस बात को सुनीअनसुनी कर देता हूँ। क्षमा न माँगने की मेरी जिद बनी रहती है।
अलबत्ता, मेरा शास्त्रज्ञान मुझे क्षमाधर्म की महिमा बताता है। मैं अपने आपको शास्त्रज्ञ और शास्त्रानुसारी मानता हूँ | 'क्षमा धर्म है' ऐसा कहता भी हूँ...। परंतु मैं क्षमा नहीं माँगता । अपराधी होने पर भी क्षमा नहीं माँगता। यह मेरा अहंकार नहीं तो क्या है? दिल खोलकर बताता हूँ कि मैने अपने अहंकार को उन शास्त्रों से ही पोसा है। अहंकार को शास्त्रज्ञान से सुरक्षित किया है। मैंने हमेशा दूसरे जीवों को ही अपराधी सिद्ध किया है। मैं अपनी तीव्र बुद्धि से और अकाट्य तर्कों से दूसरे निरपराधी मनुष्यों को भी अपराधी सिद्ध करता आया हूँ। कहिए, मैं क्यों क्षमा मागू? मेरे बाह्य-आन्तर अपराधों की सीमा नहीं है। फिर भी अपने आपको मैं निरपराधी सिद्ध कर सकता हूँ और मेरी बात दुनिया के कुछ लोग मान भी लेते हैं - ऐसे लोगों ने मेरे अहंकार को पुष्ट किया है।
केवल अहंकार होता, तब तो कभी न कभी मेरा उद्धार हो ही जाता | परंतु अहंकार के साथ तिरस्कार का गठबंधन हो गया है। दूसरे जीवों के प्रति मैं घोर तिरस्कार की भावना रखता हूँ| जिनका मैं अपराधी हूँ - उनके प्रति तिरस्कार! भूल गया, मैं अपने आपको अपराधी ही कहाँ मानता हूँ? दूसरों को ही अपराधी मानता हूँ और अपराधियों के प्रति तिरस्कार करने का अधिकार भी मानता हूँ| शास्त्रीय ढंग से तिरस्कार की उपादेयता सिद्ध कर सकता हूँ |
जो मेरे विचारों के खिलाफ हैं, जो लोग मेरी खिलाफत करते हैं, जो लोग मेरी महत्त्वाकांक्षाओं में पूरक नहीं बनते हैं... जो लोग मेरे स्वार्थों को परमार्थ
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