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यही है जिंदगी संसार की अनादि-अनंत रीति है, स्थिति है, परिस्थिति है। तो फिर क्या किया जाये? प्रियजनों का संयोग तो रहेगा ही, उनके साथ स्नेह का संबंध तो रहेगा ही! संयोग का सुख और वियोग का दुःख रहेगा ही! __भले प्रियजनों से संबंध रहे | उस संबंध को 'अनित्य', 'अस्थायी', 'विनाशी' माना जाय, तो वियोग इतना अखरेगा नहीं। संयोग के स्वरूप का ज्ञान मन को प्रबल राग-द्वेष से बचा लेता है। संयोग और वियोग का स्वरूप-ज्ञान रागद्वेष की ग्रंथि को भेदता है, आत्मा पूर्ण ज्ञानी बन जाती है।
जब चिंतन की इस धारा में बहता रहा, कल्पना-सृष्टि में करुणामूर्ति परमात्मा महावीर उभर आये। उनके साथ उनके प्रथम शिष्य इन्द्रभूति गौतम भी उपस्थित हुए। गौतम को भगवान महावीर के प्रति कितना अपूर्व प्रेम था! महान ज्ञानी गौतम ने महावीर के साथ अपने प्रगाढ़ स्नेह-संबंध के बारे में सोचा ही नहीं था! संयोग को सोचा ही नहीं था। परंतु एक दिन जब महावीर का वियोग हुआ, गौतम जैसे ज्ञानी पुरुष - सन्त पुरुष फूट-फूट कर रो पड़े... वियोग में रुदन-क्रन्दन करते-करते 'संयोग-वियोग' पर चिन्तनशील बने । चिंतन की धारा में बहते-बहते वे पूर्णता के महोदधि में पहुंच गए। स्नेह के सारे बंधन टूट गए। _ 'अनित्यः खलु परसङ्गमः' जड़ हो या चेतन हो, परद्रव्य का संयोग अनित्य है। कभी न कभी वियोग होगा ही। फिर क्यों संयोग में रागी बनूँ? मुझे जब अयोगी बनना है, तो संयोग-वियोग के विषचक्र में क्यों उलझ जाऊँ?
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