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यही है जिंदगी
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१०५. तुम खुद महान हो
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एक श्रमिक था ।
पहाड़ी पर पत्थर तोड़ रहा था ।
पत्थर तोड़ते-तोड़ते वह थक गया । एक वृक्ष के तले जाकर विश्राम करता है और सोचता है : मेहनत कम करनी पड़े और लाभ ज्यादा हो ... वैसा कोई उपाय मिल जाये तो अच्छा। वह पहाड़ी के शिखर पर पहुँचा । वहाँ एक देवकुलिका थी । श्रमिक ने सोचा : यह देव महान है, मैं इसकी पूजा करूँगा, प्रार्थना करूँगा तो मुझे ज्यादा धन मिलेगा। वह वहाँ रह गया और पूजाप्रार्थना करने लगा। कुछ दिन बीते । श्रमिक को कोई लाभ नहीं हुआ । उसने सोचा : इस देव से किसी बड़े देव की पूजा करूँ । उसने आकाश में सूर्य को देखा । वह सूर्य की उपासना करने लगा ।
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एक दिन उसने देखा, बादलों ने सूर्य को ढक दिया था! श्रमिक ने सोचा : सूर्य से बादल महान हैं, इसलिए मैं बादलों की पूजा करूँ। वह बादलों की पूजा करने लगा। एक दिन उसने देखा कि बादल तो पहाड़ से टकरा कर गिर जाते हैं! उसने बादलों से पहाड़ को महान माना और वह बादलों को छोड़कर पहाड़ की पूजा करने लगा ।
दूसरे ही दिन उसको विचार आया : पहाड़ को तो मेरे जैसे श्रमिक रोजाना काटते हैं! तो क्या पहाड़ से भी मेरे जैसे श्रमिक महान नहीं हैं ? मुझे स्वयं ही महान होने का पुरुषार्थ करना चाहिए ।
श्रमिक पुरुषार्थशील बना और समृद्धि की ओर अग्रसर हुआ ।
अज्ञान के अंधकार में भटकता हुआ मनुष्य, दूसरों के सहारे चाहता है कि कोई एक नया चाँद का टुकड़ा आकर नयी चांदनी फैलाये ! कोई देव-पुरुष आकर नवीन जीवन और नवीन उल्लास - उमंग प्रदान करे! कुछ समय का इंतजार करने पर जब ऐसा कुछ नहीं बनता है तब वह क्षुब्ध और आहत हो जाता है।
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मनुष्य अपनी अकर्मण्यता को दुर्बलता नहीं मानता है और 'मैं बेसहारा हूँ... मैं अनाथ हूँ...' ऐसा चिल्लाते हुए अपने आपको ज्यादा दुर्बल बनाता जाता है।