SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी १३४ जिन चोरों ने करोड़ों रुपयों की चोरी की थी, उनके प्रति सुव्रत श्रेष्ठि निर्वैरवृत्ति और दिव्य करुणा रख सकते हैं। ___ जिस चंडकौशिक ने तीव्र विद्वेष से भरकर परमात्मा महावीरदेव को दंश दिया, उसके प्रति भी वे निर्वैरवृत्ति और दिव्य करुणा रख सकते हैं। तो मैं साधारण अपराध करने वालों के प्रति निर्वैरवृत्ति और करुणा क्यों न रख सकूँ? कभी एक भूल हो जाया करती है। अपराधी के अपराधों को सुधारने की भावना से मैं स्वयं कोई अपराध कर लेता हूँ। जिनको अपने माने हुए होते हैं, उनके अपराध बर्दास्त नहीं होते। जो कभी बड़ा नुकसान कर बैठते हैं, उनका अपराध सहन नहीं होता। उनको सजा करने का विचार आ जाता है। 'वह दुःख पायेगा तभी सुधरेगा...।' ऐसा मिथ्या विचार आ जाता है। ___ जानता हूँ कि ऐसे विचार, तात्त्विक विचारों के क्षेत्र में प्रवेश नहीं पाते हैं। ऐसे विचार कर्मनिर्जरा के हेतु भी नहीं बन पाते हैं, फिर भी मन की निर्बलता के कारण ऐसे विचार आते रहते हैं और वैचारिक क्षेत्र को कलुषित करते हैं। ___ हालाँकि, मैंने कुछ प्रसंगों में 'अपराधी के प्रति भी करुणा' के दिव्य विचार किये हैं और उसके बहुत ही मधुर परिणाम प्राप्त किये हैं। जब एक व्यक्ति ने आकर मुझसे कहा : 'आपके वे..., आपका घोर अवर्णवाद करते हैं, आपके विरुद्ध प्रचार करते हैं... आपका चरित्र हनन करते हैं... मैंने शांति से सुना और कहा : ‘परमात्मा की कृपा से उनको सदबुद्धि प्राप्त हो... परनिन्दा के पाप से वे मुक्त हों! मुझे कोई प्रतिवाद नहीं करना है।' उनकी बात सुनकर जब मेरे साथी रोषयुक्त हो गये थे और प्रतिवादप्रतिकार की योजना बनाते थे, तब भी मेरे मन में खूब शांति थी, प्रसन्नता थी। मैंने अपने साथियों से कहा था : 'कोई भी प्रतिकार मत करो। उनकी बुद्धि निर्मल हो, वैसी प्रार्थना करो।' अपराधी अपने अपराधों से दु:खों को निमन्त्रण देता है। वह वैसे पापकर्म बाँधता है कि जिनके परिणामस्वरूप दुःख ही मिले। अपराधी की भविष्यकालीन दुःखमय अवस्था की कल्पना, उसके प्रति करुणा पैदा करती है। ० मन में से सभी अपराध-भावनाएँ नष्ट हो जाए। 0 मन में अपराधी जीवों के प्रति भी दिव्य करुणा बहती रहे। 0 सभी जीवों की 'अपराध-भावना' दूर हो! 0 सभी जीवों के हृदय में प्रेम और करुणा की गंगा बहती रहे! ० सभी अपराधों को सहजता से सहन करने की क्षमता प्राप्त हो! For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy