SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra यही है जिंदगी www.kobatirth.org ६६. करुणाभरी कामना Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir & भगवान नृसिंह ने प्रह्लाद पर प्रसन्न होकर कुछ वरदान माँगने के लिए आग्रह किया तब प्रह्लाद ने पहले तो कहा: 'भगवन्, मेरे मन में कोई कामना ही नहीं पैदा हो, वैसा वरदान दो । १३३ भगवान ने 'एवमस्तु' कह कर आग्रह किया कि 'तू अपने लिए कुछ माँग ले।' प्रह्लाद ने सोचा : 'भगवान इतना आग्रह करते हैं माँगने का, तो अवश्य मेरे मन में कोई कामना होनी चाहिए।' उसने बहुत सोचा, काफी मनोमंथन किया, परन्तु ऐसी कोई कामना नहीं मिल... तब प्रह्लाद ने कहा : 'भगवान, मेरे पिता ने आपकी बहुत निन्दा की है और आस्तिकजनों को बहुत कष्ट दिये हैं। वे अपने जीवन में घोर हिंसक रहे हैं। मैं यही चाहता हूँ कि वे इन पापों से छूटकर पवित्र हो जाएं।' भगवान ने कहा : ‘वत्स, धन्य हो तुम, जिसके मन में यह कामना है कि अपने को कष्ट देने वाले की भी दुर्गति न हो ।' प्रह्लाद की कहानी कहने वाले महर्षि के मन में प्रह्लाद की आन्तरसम्पत्ति की कैसी भव्य कल्पना होगी ! बाह्य भौतिक सम्पत्ति से दुनिया को खुश कर सकता है मनुष्य, परन्तु परमात्मा को तो आन्तर गुणसम्पत्ति से ही प्रसन्न किये जा सकते हैं। आन्तर गुणसम्पत्ति का एक अनमोल रत्न है : अपराधी के प्रति भी करुणा ! कष्ट देने वालों के प्रति भी निर्वैरवृत्ति ! कब आएगी ऐसी करुणा ? कब पैदा होगी ऐसी निर्वैरवृत्ति ? मैं जानता हूँ कि ‘सम्यग्दर्शन' गुण आत्मा में प्रकट होने की यह एक निशानी है : अपराधी का भी अहित नहीं सोचना, अहित नहीं करना । तो क्या आत्मगुणस्वरूप सम्यग्दर्शन मुझे प्राप्त ही नहीं हुआ है ? क्या मैं केवल व्यवहारदृष्टि से ही सम्यग्दर्शन का धारक हूँ ? और इस भूमिका पर ही संतोष मानकर बैठा रहा हूँ? जिस पिता हिरण्यकशिपु ने घोर यातनाएँ दी थी, उनके प्रति कुमार प्रह्लाद निर्वैरवृत्ति और करुणा रख सकते हैं । For Private And Personal Use Only जिस रानी अभया ने कुत्सित कलंक लगाया था, उनके प्रति श्रेष्ठि सुदर्शन निर्वैरवृत्ति और अपूर्व करुणा रख सकते हैं।
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy