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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी ११९ ___ उन महर्षि ने अपने दिव्य ज्ञान में, अपने अनुभव-ज्ञान में परमात्म-शक्ति का परिचय प्राप्त किया होगा, परन्तु मेरे पास तो नहीं है वैसा दिव्य ज्ञान, नहीं है अनुभव-ज्ञान... तो मैं परमात्म-शक्ति का परिचय कैसे प्राप्त करूँ? मेरे जैसे दूसरे असंख्य जीव भी कैसे परिचय प्राप्त कर सकते हैं? ऐसा दिव्य ज्ञान भी परमात्म-शक्ति से मिल जाना चाहिए | जब बोधिलाभ और समाधि-मृत्यु परमात्मा दे सकते हैं, तो दिव्य दृष्टि भी वे ही दे सकते हैं! रही बात हार्दिक प्रणाम करने की, प्रतिदिन वैसा प्रणाम करता हूँ मैं... फिर भी जब फल प्राप्त नहीं होता है तो निराशा छा जाती है। __यों तो संसार में देखा जाता है कि करुणावंत पुरुष, दुःखी जीवों से प्रणाम की भी अपेक्षा नहीं रखते और दुःख दूर करने का प्रयत्न करते हैं। तो फिर अनंत करुणा के सागर परमात्मा दुःखी जीवों के प्रणाम की अपेक्षा क्यों रखें? प्रणाम की अपेक्षा रखे बिना भी जीवों के दुःख दूर कर सकते हैं न? प्रणाम करने वालों के तो दुःख दूर कर ही देने चाहिए न? परमात्मा के प्रति श्रद्धा है, भक्ति है, बहुमान है... प्रतिदिन उनका नामस्मरण करता हूँ, उनकी मूर्ति का दर्शन-वंदन करता हूँ... और उनका ध्यान भी धरता हूँ... फिर भी क्यों दुःखनाश और कर्मनाश नहीं होता? क्यों पापकर्म के उदय सताते रहते हैं? क्यों दुःख के बादल छाये हुए रहते हैं? __ हे परमात्मन, जो तेरे प्रति श्रद्धा नहीं रखते, जो तेरी भक्ति नहीं करते, जो तेरी शरणागति स्वीकार नहीं करते, उनके दु:खों का और कर्मों का नाश तू नहीं करता है, वह तो ठीक है, परन्तु जो तेरी शरण में हैं, जो निशदिन तेरा नाम जपते हैं और अन्तःकरण से तेरे प्रति स्नेह रखते हैं, ऐसे जीवों के तो तू पाप नष्ट कर दे! दुःखनाश कर दे! अन्यथा तेरी अनंत शक्ति पर जीवों का विश्वास कैसे स्थिर रहेगा?' जब मैं विचार-निद्रा से जगा और परमात्मा की मूर्ति के सामने देखा, मूर्ति मेरे प्रति स्मित बिखेर रही थी! For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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