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यही है जिंदगी
११७ गई... मन मूर्च्छित-सा हो गया। एक भयानक स्वप्न ने मुझे घेर लिया...| जहाँ मैंने खजाना देखा था वहाँ काले पत्थरों का ढेर ही था और उन पत्थरों के इर्दगिर्द डरावने भूत नाच रहे थे। मेरे चारों ओर भयानक सों के फूंकार हो रहे थे। भूतों के अट्टहास्य सुनकर मेरी काया पसीने से स्नान कर रही थी। मैं शीघ्र ही वहाँ से भागा...। एक साथ तीन-तीन सोपान चढ़ता हुआ भूमिगृह से बाहर निकल आया...। ___ पास में ही एक सरिता बह रही थी। पूर्व दिशा ने लाल चूनरी ओढ़ ली थी। आकाश के झरोखें में विहंगमों ने नौबत-शहनाई बजानी शुरू कर दी थी। मेरे श्वासोच्छवास की तीव्र गति अब कुछ मन्द हो रही थी। सरिता के तट पर जा पहुँचा, एक पाषाण-चट्टान पर जा बैठा । मैं अकेला ही था, निःसर्ग की गोद में था। मन में प्रश्न थे।
'मैंने जो कुछ देखा - क्या वह सही था या मिथ्या था? कौन वास्तविक था? मेरे चर्मचक्षु का दर्शन वास्तविक था या मेरे अन्तःचक्षु का दर्शन वास्तविक था? क्या सत्य था, क्या मिथ्या था?' __'राग और द्वेष से आवृत चर्मचक्षु से क्या सम्यग्दर्शन हो सकता है? देखने का, दर्शन करने का उपकरण ही अशुद्ध हो, तो क्या शुद्ध का दर्शन हो सकता है? देखने का उपकरण ही मिथ्या हो, तो क्या सत्य का दर्शन हो सकता है?'
कैसी गंभीर भूल कर रहा हूँ जीवन में? बाह्य इन्द्रियाँ, जो कि राग-द्वेष से आवृत्त हैं, उन पर भरोसा करके, इन्द्रिय-प्रत्यक्ष ज्ञान को सही मान रहा हूँ! वास्तविक मान रहा हूँ! जो वास्तविक है उसको अवास्तविक मान रहा हूँ, अवास्तविक को वास्तविक मान रहा हूँ! काल्पनिक को सत्य मान रहा हूँ और सत्य को काल्पनिक!
आज मेरी अंतर्यात्रा दिलचस्प रही! मेरे अन्तःचक्षु ने गृह, स्त्री और संपत्ति की वास्तविकता का दर्शन करवाया । एक दिव्य ध्वनि सुनायी दी : 'पदार्थ के पर्याय देखकर ही मत रुक जाओ, मूलभूत द्रव्यों को भी देखो! पर्यायों की परिवर्तनशीलता को देखो! परम सुख पाओगे!'
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