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यही है जिंदगी
४८. इच्छाओं से मुक्त बनें ३
श्री इन्द्रभूति गौतम को भगवान महावीर के प्रति जैसे अनन्य अनुराग था वैसे ही मोक्ष पाने की भी तीव्र अभिलाषा थी! उन्होंने अपनी आँखों से कई श्रमणों को एवं श्रमणियों को निर्वाण पाते हुए देखा था... कइयों को केवलज्ञानी बनते देखा था... उस समय उनके मन में यह प्रश्न पैदा होता था : 'मुझे कब केवलज्ञान होगा? मेरा निर्वाण कब होगा?' श्रमण भगवान महावीर गौतम के मनोभावों को जानकर समाधान भी करते थे!
तब तक गौतमस्वामी को केवलज्ञान नहीं हुआ जब तक उनका हृदय अनुरागी था! गुरु-अनुराग और मोक्ष-अनुराग जब तक बना रहा, तब तक वे सर्वज्ञ नहीं बने! जब अनुराग का बंधन टूटा तब तुरंत ही वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन गये। यह एक वास्तविकता है।
दूसरी ओर देखें तो गुरु-अनुराग और मोक्षानुराग के बिना आत्मविकास का प्रारम्भ ही नहीं होता है! आत्मसाधक महात्मा जैसे संसार के प्रति विरागी होता है, वैसे ही गुरु के प्रति और मोक्ष के प्रति अनुरागी होता है! यह अनुराग आत्मविकास में, ज्ञान-दर्शन-चारित्र के विकास में सहायक बनता है।
अष्टापद तीर्थ की यात्रा के लिये गये हुए गौतमस्वामी के प्रति १५०३ तापसों को प्रगाढ़ अनुराग हो गया... और उनकी अंतर्यात्रा का प्रारम्भ हो गया... भगवान महावीर के पास पहुँचते-पहुँचते तो १५०३ तापस केवलज्ञानी बन गये! परंतु वे तभी केवलज्ञानी बने होंगे... जब उनका गुरु-अनुराग समाप्त हो गया होगा! जब उनकी मुक्ति-कामना भी समाप्त हो गई होगी! सर्वज्ञताप्राप्ति के पूर्व-क्षणों में पूर्ण समत्व आना अनिवार्य है। पूर्ण समत्व के बाद ही पूर्णज्ञान की उपलब्धि होती है।
पूर्ण समत्व में नहीं होता है राग, नहीं होता है द्वेष! प्रशस्त राग-द्वेष भी नहीं चाहिए। प्रशस्त राग-द्वेष तब तक ही उपादेय माने जाते हैं जब तक अप्रशस्त राग-द्वेष आत्मा में उभरते रहते हैं! संसार का राग मिटाने के लिये परमात्म-राग, गुरु-राग और धर्म-राग उपादेय हैं। जब आत्मा सम्यग्ज्ञानदर्शन-चारित्र में परिपक्व बन जाती है, तब उसकी आराधना समत्व को सिद्ध करने की ओर मुड़ जाती है। वह प्रशस्त राग से भी मुक्त होने का प्रयत्न करती है।
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