SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी नगर में पधारें! वह जानती थी कि यदि राजकुमार अपने पिता-मुनिराज के परिचय में आएगा तो पिता के साथ चला जायेगा! परन्तु एक दिन वैसा ही हुआ! सुकोशल अपने पिता-मुनिराज के साथ साधु बनकर चला गया। इससे माता के हृदय में पुत्र के प्रति रोष पैदा हो गया। पुत्र को प्राण से भी अधिक माननेवाली माता पुत्र के प्रति तीव्र द्वेष वाली बन गई! पहले तो हृदय में सम्बन्ध का परिवर्तन हुआ, बाद में बाह्य संबंध भी बदल गया। माता मरकर एक पहाड़ी में शेरनी बनी! उसी पहाड़ी की एक गुफा में मुनिवर सुकोशल अपने पिता-मुनिराज के साथ आत्मध्यान करने गये थे। जब पिता-पुत्र उस पहाड़ी से नीचे उतरते हैं, तब उस शेरनी ने दोनों को देख लिया... और तीव्र द्वेष की वासना उभर आयी, उसने शीघ्र ही सुकोशल मुनि पर हमला कर दिया... सुकोशल मुनि तो निर्मम... निःसंग बने हुए थे! शरीर और आत्मा का भेदज्ञान पा लिया था, उनका मोक्ष हो गया। __पूर्व जन्म की माता... मरकर शेरनी बने और अपने ही पुत्र का शिकार कर दे! संसार के सम्बन्धों की निःसारता को समझने के लिये इससे बढ़कर दूसरा कौन-सा उदाहरण चाहिए? ___ संसार में कभी कोई सम्बन्ध जन्म-जन्म तक टिका हुआ रहता है, ऐसे प्रसंग-धर्मग्रन्थों में पढ़ने को मिलता है, परन्तु ऐसी घटनाएँ अपवादरूप हैं। किन्हीं उत्तम जीवात्माओं के बीच ऐसे सम्बन्ध हो जाते हैं और निर्वाण तक बने रहते हैं। ऐसे कुछ अपवादों को छोड़कर देखें तो सारे संसार के सम्बन्ध अनिश्चित, परिवर्तनशील और निःसार हैं। जब संसार के संबंध ऐसे ही हैं तो फिर क्यों किसी से स्नेह-संबंध बाँधना? क्यों किसी सम्बन्ध को स्थायी बनाने का निष्फल प्रयत्न करना? क्यों किसी संबंध को लेकर राग-द्वेष करना? यदि सम्बन्धों के बंधन टूट जाये तो मन अवश्य परमात्मध्यान में और तत्त्वचिंतन में स्थिर बन जायें! 'हे परमात्मन! सारे सम्बन्धों के बंधन तोड़ दो और आपके साथ मेरे मन को जोड़ दो... आपसे और कुछ भी नहीं चाहिए।' For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy