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भी है और भगवान के पास भी है....।'
मरिची के इस प्रत्युत्तर ने उस का अधःपतन किया। तीव्रतम मिथ्यात्व मोहनीय कर्म बाँध लिया। चूंकि मरिची के पास सच्चा चारित्र धर्म नहीं था फिर भी उस ने कहाः ‘मेरे पास धर्म है!' यह गलत प्रतिपादन करने से, उस ने जो कर्म बाँधा... उस कर्म ने उस को अनेक जन्मों तक सम्यग् दर्शन प्राप्त नहीं होने दिया। जिन शासन की प्राप्ति नहीं होने दी....। वह भटक गया।
कपिल को शिष्य बनाने का लोभ जग गया था उसके मन में | 'मैं कभी बीमार पड़ा, तो भगवान के साधु मेरी सेवा नहीं करेंगे....चूँकि मैं साधु नहीं हूँ....। उस समय मेरी सेवा करनेवाला कोई शिष्य होना चाहिए। यह कपिल मेरा शिष्य बनना चाहता है, बना दूँ उस को शिष्य! जब लोभ जगता है तब मनुष्य भूल कर बैठता है। - चेतन, सद्गुरु की आशातना, अवर्णवाद करने से भी मिथ्यात्व मोहनीय कर्म बँधता है। जो सद्गुरु के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार करते हैं, निंदा
और अवर्णवाद करते हैं... वे मिथ्यात्व को तो प्रगाढ़ करते ही हैं दूसरे भी अनेक पाप कर्म बाँधते हैं, निकाचित पाप कर्म बाँधते हैं। - मिथ्यात्व को बँधानेवाले ये सभी हेतु हैं...।' कर्मग्रंथ में और अन्य ग्रंथों में
ये सारे हेतु बताए गए हैं। एक हेतु आज ही पढ़ने में आया! वह है 'असमीक्षितकारिता'! 'समीक्षा' यानी सोचना, अच्छे ढंग से सोचना!' 'असमीक्षा' यानी नहीं सोचना, गंभीरता से नहीं सोचना । जो मनुष्य सोचे बिना, समझे बिना कार्य करता है, वह मिथ्यात्व मोहनीय कर्म बाँधता है! जिन-साधु-चैत्य-प्रतिमा-संघ-सदगुरु... वगैरह की आशातना और अवर्णवाद के कार्य मनुष्य सोचे-समझे बिना ही करता है न! 'मैं जिनेश्वर वगैरह की निंदा करता हूँ, ग़लत बातें बोलता हूँ... इसका क्या परिणाम आएगा? कैसा कर्मबंध होगा? निंदा-तिरस्कार करने से मुझे कौन सा लाभ होगा?' क्या इस तरह सोचता है मनुष्य? नहीं सोचता है, नहीं समझता है, और मिथ्यात्व वगैरह अनेक पाप कर्म बाँध लेता है।
चेतन, सावधान रहना। ये सारे मिथ्यात्व के हेतु जो बताए, एक भी पाप नहीं होना चाहिए जीवन में। आजकल अपने संघ-समाज का वातावरण दूषित बना
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