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करता है... तो मिथ्यात्वमोहनीय कर्म बाँधता है। - 'कोई सर्वज्ञ-केवलज्ञानी हो ही नहीं सकता। लोकालोक के सभी द्रव्यों के
सभी-त्रैकालिक पर्यायों को जानना-देखना संभव ही नहीं... सर्वज्ञता की बात व्यर्थ है...' इस प्रकार मानने से, बोलने से मिथ्यात्वमोहनीय कर्म बँधता है। - 'मुझे धर्मोपदेश नहीं सुनना है... मुझे धर्म का ज्ञान नहीं चाहिए... क्या काम
आता है वह ज्ञान? मात्र समय और दिमाग बिगाड़ना है....। डाल देने चाहिए सभी शास्त्र समुद्र में...' ऐसा सोचने से या बोलने से मिथ्यात्वमोहनीय
कर्म बाँधता है। - चेतन, जो मनुष्य स्वार्थ से, लोभ से या अज्ञानता से असंयमी-मिथ्यात्वी
और पापासक्त पाखंडी की... बाबा-जोगी की पूजा-सेवा करते हैं, वे भी मिथ्यात्वमोहनीय कर्म बाँधते हैं। - जो तत्त्व जैसा हो, वैसा नहीं बताते हुए गलत बताता है... तो मिथ्यात्व मोहनीय बाँधता है... परिणाम स्वरूप अनेक जन्मों तक उस जीवात्मा को सम्यग् दर्शन की, सन्मार्ग की प्राप्ति नहीं होती है। मिथ्यात्व के प्रगाढ़ अंधकार में अनेक जन्मों तक भटकता रहता है। भरत चक्रवर्ती का पुत्र मरिची, भगवान ऋषभदेव के उपदेश से वैरागी
बन साधु बन गया था। साधु जीवन के कठोर महाव्रतों का पालन करने में वह समर्थ नहीं रहा... उसने साधु जीवन का त्याग किया परंतु वापस गृहस्थ जीवन का स्वीकार भी नहीं किया। 'त्रिदंडी' के वेश की परिकल्पना कर, वह अणुव्रतों का पालन करने लगा। न गृहस्थ, न साधु! तीसरा ही मार्ग पसंद किया। उपदेश देता था विशुद्ध मोक्षमार्ग का | कोई शिष्य बनने आता तो उसको अपना शिष्य नहीं बनाता था, भगवान ऋषभदेव के पास भेजता था।
एक दिन एक राजकुमार, मरिची के उपदेश से वैरागी बना और उसने कहाः 'मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ।' मरिची ने कहाः 'तुम भगवान के शिष्य बनो।' राजकुमार कपिल ने कहाः 'नहीं, मैं तो आपका ही शिष्य बनना चाहता हूँ।' मरिची ने कहाः 'मैं तुझे मेरा शिष्य नहीं बना सकता।'
राजकुमार ने कहाः ‘क्यों गुरुदेव! क्या आप के पास धर्म नहीं है? क्या भगवान ऋषभदेव के पास ही धर्म है?' मरिची ने कहाः ‘कपिल, धर्म तो मेरे पास
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