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- जिन मंदिर और जिन-प्रतिमा को 'यह तो पत्थर है, पाषाण है' वगैरह तिरस्कारपूर्ण शब्द बोलनेवाले लोग मिथ्यात्व बाँध लेते हैं, यदि मिथ्यात्वी होते हैं तो मिथ्यात्व को दृढ़ कर लेते हैं! जिनमंदिर और जिनप्रतिमा की निंदा और अवर्णवाद करनेवालों का तो आज अपने देश में बड़ा संघठन बन गया है। उसमें साधु और साध्वी भी हैं! वे साधु-साध्वी अपने संघ को दृढ़ बनाने के लिए, उपदेश देते रहते हैं जिनमंदिर में नहीं जाने का और जिनप्रतिमा का दर्शन-पूजन नहीं करने का! इसलिए उन लोगों को जिनमंदिर और जिनप्रतिमा की निंदा करनी ही पड़ती है। उपदेशक तो मिथ्यात्व मोहनीय कर्म बाँधते ही हैं, हजारों श्रोताओं को भी वे गुमराह
करते हैं और मिथ्यात्व मोहनीय के बंधन में निमित्त बनते हैं। - मोक्षमार्ग से विपरीत उपदेश देनेवाले, संसार की आसक्ति बढ़ानेवाला उपदेश
देनेवाले उपदेशक, मिथ्यात्वमोहनीय कर्म बाँधते हैं। - ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप मोक्षमार्ग का अपलाप करने से जीवात्मा मिथ्यात्वमोहनीय
कर्म बाँधता है। 'ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप मोक्षमार्ग है ही नहीं....' इस प्रकार मोक्षमार्ग का अपलाप करनेवाले लोग होते हैं दुनिया में! - देवद्रव्य, यानी परमात्मा को समर्पित द्रव्य (सोना, चाँदी, रुपये वगैरह)
कोई मनुष्य हड़प लेता है, अपने स्वयं के उपयोग में अथवा जिनमंदिर के
अलावा दूसरे उपयोग में लेता है तो मिथ्यात्व मोहनीय कर्म बाँधता है। - चेतन, तेरी शक्ति है देवद्रव्य के नाश को रोकने की, फिर भी तू नहीं
रोकता है, उपेक्षा करता है तो मिथ्यात्वमोहनीय बाँधता है। - वैसे कोई मनुष्य संघ की अवहेलना करता है, साधु-साध्वी-श्रावक और
श्राविका-रूप चतुर्विध संघ का तिरस्कार करता है... वह मिथ्यात्वमोहनीय कर्म बाँधता है। गर्व से उन्मत्त मनुष्य यदि बोलता है या सोचता है: 'मुझे संघ से क्या लेना-देना? मैं संघ के नियमों को नहीं मानता हूँ...।' वगैरह,
तो संघ की आशातना होती है। - 'मैं मोक्ष नहीं मानता हूँ, सिद्धात्माओं को नहीं मानता हूँ। कोई जीव सभी कर्मों से मुक्त हो ही नहीं सकता... और, यदि मोक्ष है... तो भी मैं वैसे मोक्ष
को पसंद ही नहीं करता कि जहाँ कोई प्रवृत्ति ही नहीं होती है...।' इस प्रकार जो मनुष्य मोक्ष और सिद्धात्माओं की उपेक्षा करता है अथवा निंदा
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