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दर्शनों के प्रति मध्यस्थभाव होता है - उसको अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व कहते हैं। किसी एक धर्म के प्रति पक्षपात नहीं होता है।
अभिनिवेश होता है - 'मैं कहूँ वही सही!' सत्य को जानते हुए भी असत्य का आग्रह, छोड़ता नहीं है, यह है आभिनिवेशिक मिथ्यात्व | वह मिथ्यात्व, चारों मिथ्यात्व की अपेक्षा से ज्यादा ख़तरनाक है।
'भगवान ने ये धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय वगैरह द्रव्य बताए तो हैं, परंतु क्या ये सच हैं ही? भगवान ने मोक्ष... स्वर्ग... नरक वगैरह तत्त्व बताए हैं... परंतु ये बातें सत्य होंगी क्या?' संशय! मन में शंकाएँ पैदा करता रहता है यह सांशयिक मिथ्यात्व।
अनाभोगिक मिथ्यात्व यानी अव्यक्त मिथ्यात्व | जो एकेंद्रिय वगैरह जीवों को होता है।
चेतन, तू समझ गया होगा, इन्द्रभूति गौतम आदि को पहला आभिग्रहिक मिथ्यात्व होना चाहिए था। भगवान के प्रभाव से वह दूर हो गया। _ विद्वान, बुद्धिमान और शास्त्रज्ञ पुरुषों को प्रायः 'आभिनिवेशिक' मिथ्यात्व होता है। उनको अपनी विद्वत्ता का, बुद्धि का, शास्त्र ज्ञान का अभिनिवेश होता है। जानते हुए भी असत्य को नहीं छोड़ते हैं। जानते हैं - "मैंने जो बात पकड़ी है वह ग़लत है... असत्य है, परंतु अब मैं कैसे छोड़ दूँ? मैंने मेरी बुद्धि से, मेरी विद्वत्ता से असत्य को सच सिद्ध कर दिया है... अनेक तर्कों से और शास्त्र वचनों से... | यदि मैं अब उस बात को छोड़ देता हूँ और सत्य का स्वीकार करता हूँ... तो मेरा मत माननेवाले मेरे
अनुयायी... मेरा तिरस्कार करेंगे... मेरी वजह से मेरे अनुयायियों के सिर शर्म से झुक जाएँगे.. दुनिया में मेरी अपकीर्ति होगी...।' आभिनिवेशिक मिथ्यात्व ऐसी विपरीत बुद्धि पैदा करता है।
आभिनिवेशिक मिथ्यात्व का सम्मोहन ऐसा प्रबल होता है कि तीर्थंकर जैसे तीर्थंकर भी उस सम्मोहन को दूर नहीं कर पाते हैं। श्रमण भगवान महावीर, अपने जामाता-शिष्य जमालि मुनि को नहीं समझा पाए थे। यह भगवान की अशक्ति नहीं थी परंतु जमालि मुनि का आभिनिवेशिक मिथ्यात्व का उदय था । प्रगाढ़ सम्मोहन था मिथ्यात्व का।
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