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• जो परमात्मा नहीं हैं, उनको परमात्मा मानता है, • जो गुरु नहीं हैं वास्तव में, उनको गुरु मानता है,
• जो धर्म नहीं है वास्तव में उसको धर्म मानता है ।
जब तक मिथ्यात्व का सम्मोहन दूर नहीं होता है तब तक यह स्थिति बनी रहती है। ऐसे मनुष्य को कितना भी समझाया जाय... नहीं समझ पाएगा। हाँ, मिथ्यात्व का सम्मोहन दूर किया जाय... अथवा स्वतः वह सम्मोहन दूर हो जाय... तो सत्य का स्वीकार और असत्य का त्याग करने में देरी नहीं होती है ।
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जिस समय इन्द्रभूति गौतम अपने ५०० छात्रों के साथ श्रमण भगवान महावीरस्वामी के पास आए थे, उन पर मिथ्यात्व का सम्मोहन था ! वे बुद्धिमान थे, विद्वान थे परंतु उनकी बुद्धि और विद्वत्ता, मिथ्यात्व से सम्मोहित थी। परंतु मिथ्यात्व का सम्मोहन, भगवान महावीर के प्रथम दर्शन और उनके दो शब्दों से बिखरने लगा था! ‘हे इन्द्रभूति गौतम, तुम सुखपूर्वक यहाँ आए ?' जैसे शब्दों से, वचनों से मनुष्य को जैसे सम्मोहित किया जा सकता है, वैसे शब्दों से, वचनों से सम्मोहन दूर भी किया जा सकता है। भगवान महावीर के वचनों से इन्द्रभूति गौतम और उनके ५०० छात्रों का मिथ्यात्वजनित सम्मोहन दूर हो गया, असत्य को पहचान लिया, सत्य को जान लिया । असत्य को छोड़ दिया, सत्य को पा लिया !
चेतन, ‘इन्द्रभूति गौतम का 'मिथ्यात्व' किस प्रकार का था, जो कि भगवान महावीर के वचनों से, उनके प्रभाव से दूर हो गया?' तेरे मन में प्रश्न पैदा होगा। मैं तुझे इस पत्र में मिथ्यात्व के पाँच प्रकार बताता हूँ।
‘चौथे कर्मग्रंथ में ये पाँच प्रकार बताए गए हैं : '
अभिगहियमणभिगहियाभिनीवेसियसंसइयमणाभोगं, पण मिच्छे...' (५१)
(१) आभिग्रहिक, (२) अनाभिग्रहिक, (३) आभिनिवेशिक, (४) सांशयिक व (५) अनाभोगिक,
'यही मेरा धर्म, मेरा दर्शन सच्चा है, दूसरा कोई नहीं,' - ऐसा कुल परंपरा से प्राप्त धर्म-दर्शन को दृढ़ता से मानना, जो कि सही नहीं है, सत्य नहीं है, इसको आभिग्रहिक मिथ्यात्व कहते हैं।
‘मैं तो सभी धर्मों को, सभी दर्शनों को अच्छे मानता हूँ,' इस प्रकार सभी धर्म
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