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पत्र : १५
प्रिय चेतन,
धर्मलाभ,
तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ।
तेरा प्रश्न है :
'देवों को सदैव शारीरिक सुख होता है, न कोई रोग, न कोई व्याधि । शारीरिक संपूर्ण सुख का क्या कारण होता है और नरक में शारीरिक संपूर्ण दुःख का क्या कारण होता है?"
उत्कृष्ट शातावेदनीय कर्म, सदैव शारीरिक सुख देता है । उत्कृष्ट शारीरिक सुख स्वर्ग में-देवलोक में भोगा जाता है। कुछ आत्माएँ इस मनुष्य जीवन में भी श्रेष्ठ शारीरिक सुख भोगती हैं ।
चेतन, उत्कृष्ट शातावेदनीय कर्म बँधता है उत्कृष्ट गुरुभक्ति करने से। ‘गुरु’ शब्द व्यापक अर्थ में समझना । माता गुरु है, पिता गुरु है, कलाचार्य और धर्माचार्य भी गुरु हैं। इन सभी पूज्यों की समुचित भक्ति करने से, उनके तन-मन को सुख-शाता देने से ‘शातावेदनीय कर्म' बँधता है। किसी पूज्य व्यक्ति की अवज्ञा नहीं, अनादर नहीं, तिरस्कार नहीं । सदैव पूज्यभाव, सदैव सद्भाव और सदैव समुचित भक्ति करते रहो... शातावेदनीय कर्म ऑटोमैटिक बँधता जाएगा, तुझे बाँधना नहीं पड़ेगा !
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परंतु निरंतर पूज्य भाव... निरंतर सद्भाव तभी हृदय में रहता है जब मनुष्य क्षमाशील और विनम्र हो । सरल और संतोषी हो । गुरुजनों की ओर से कभी दुर्व्यवहार हो, उस समय उनके प्रति दुर्भावना नहीं आ जाय - पूज्य भाव बरफ की तरह पिघल न जाय, इस बात की सावधानी हमेशा रहनी चाहिए ।
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• कभी-कभी माता गुस्सा करती है,
• कभी-कभी पिता उपालंभ देते हैं, मारते भी हैं,
· कभी कलाचार्य-अध्यापक शिक्षा करते हैं,
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- कभी धर्मगुरु कटु सत्य सुनाते हैं....
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