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होते हैं, कम-ज्यादा नहीं। * उन तीनों कर्मों से ज्यादा कार्मण-पुद्गल मोहनीय कर्म रूप बनते हैं। * मोहनीय से ज्यादा कार्मण-पुद्गल 'वेदनीय-कर्म रूप बनते हैं। यानी
सबसे ज्यादा कर्म-पुद्गल वेदनीयरूप बनते हैं। चूँकि जीव प्रति पल... प्रति समय सुख-दुःख का अनुभव करता है। सुख-दुःख का अनुभव 'वेदनीय-कर्म' की वजह से होता है। सबसे ज्यादा व्यय वेदनीय कर्म का होता है, इसलिए सबसे ज्यादा 'आय' भी उसी
कर्म की है। चेतन, समझ गया न? कर्मबंध को इस प्रकार समझाना बहुत आवश्यक है। एक विशेष बात बता देता हूँ। __ जीव 'आयुष्य कर्म' एक बार ही बाँधता है। सामान्यतः प्रति समय सात कर्म ही बँधते हैं। और, जब सात कर्म ही बँधते हैं, तब सब से कम कर्मपुद्गल 'नाम कर्म' और 'गौत्र कर्म' को मिलते हैं।
आत्मा के साथ कर्मों का जुड़ना चार प्रकार से होता है। कालसमय की दृष्टि से 'स्थितिबंध' बताया गया है। ‘स्थितिबंध के आधार पर, चार प्रकार बताये गए
___- पहला है 'स्पृष्ट' कर्मबंध। जिस प्रकार स्वच्छ वस्त्र के ऊपर रज गिरती है, कपड़े को झटकने से रज दूर हो जाती है, उसी प्रकार आत्मा के साथ कर्म जुड़ते हैं, परंतु आत्मा निर्मल-स्वच्छ होती है तो शुभ भाव का झटका लगने से वे कर्म दूर हो जाते हैं। ___- दूसरा प्रकार है 'बद्ध' कर्मबंध। जिस प्रकार चिकने वस्त्र पर रज गिरती है तो उस वस्त्र को साफ करने में मेहनत करनी पड़ती है, उसी प्रकार यदि आत्मा मिथ्यात्व-कषाय आदि से मैली है, तो कर्म सख्त रूप से जुड़ते हैं। विशेष तपश्चर्या आदि का पुरुषार्थ करने से अथवा उन कर्मों को भोगने से ही वे कर्म नष्ट होते हैं। ___ - तीसरा प्रकार है 'निधत्त' कर्मबंध | जिस प्रकार चिकने वस्त्र पर वैसे दाग़ पड़ते हैं कि जो दाग़ धोने पर जाते ही नहीं! वस्त्र फट जाएँ परंतु दाग़ नहीं जाएँ!
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