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- तैजसलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या शुभ हैं।
जिस तरह स्फटिक मणि भिन्न-भिन्न रंगों के माध्यम से भिन्न-भिन्न रंगवाली प्रतिभासित होती है, वैसे कृष्ण (काले) वगैरह द्रव्यों का संग पाकर आत्मा के परिणाम, अध्यवसाय उसी रंग में परिणत होते हैं। आत्मा की इस परिणति के लिए 'लेश्या' शब्द का प्रयोग किया गया है। इस आत्मपरिणति को 'भावलेश्या' कहते हैं और जो काले वगैरह द्रव्य आत्मा के संपर्क में आते हैं, उन द्रव्यों को "द्रव्यलेश्या' कहते हैं। द्रव्यलेश्या पौदगलिक होती है, भावलेश्या आत्मपरिणतिरूप होती है।
चेतन, परिणाम, अध्यवसाय और लेश्या - इन तीनों का घनिष्ठ संबंध है। जहाँ परिणाम शुभ होते हैं, अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं, वहाँ लेश्या विशुद्धमान होती है। इससे विपरीत, परिणाम जब अशुभ होते हैं, तब अध्यवसाय अप्रशस्त होते हैं और लेश्या संक्लिष्ट होती हैं।
कर्मों के 'स्थितिबंध' में लेश्याएं प्रमुख कारण हैं। लेश्याओं के विषय में विस्तार से समझना हो तो 'प्रशमरति-विवेचन' में मैंने जो परिशिष्ट दिया है, वह पढ़ना। दूसरे भाग में परिशिष्ट है।
चेतन, अब मैं तुझे कर्मबंध के विषय में कुछ गहराई में ले जाता हूँ | घबराना नहीं, मैं तेरे साथ हूँ...! सरलता से समझाऊँगा। तुझे आनंद का अनुभव होगा।
- जीवात्मा, मन-वचन और काया से कोई प्रवृत्ति करता है, - कार्मण-पुद्गल आत्मा के साथ जुड़ते हैं। - जुड़ते ही वे आठ प्रकार की प्रकृति में विभाजित हो जाते हैं, यह विभाजन समान रूप से नहीं होता है, कैसे होता है विभाजन वह बात बताता हूँ| जीवात्मा एक ही विचार करता है... उस एक विचार से जो कार्मण-पुद्गल आत्मा में प्रविष्ट होते हैं, वे पुद्गल... * सबसे कम संख्या में 'आयुष्य-कर्म' रूप बनते हैं, * उनसे ज्यादा पुद्गल 'नामकर्म' और 'गोत्र कर्म' रूप बनते हैं। इन
दो कर्मों के पुद्गल समान होते हैं। * उनसे ज्यादा कार्मण-पुद्गल ज्ञानावरण-रूप, दर्शनावरण-रूप और
अंतराय-रूप बनते हैं। तीनों कर्मों के कार्मण-पुद्गल समान रूप से
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